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हे मुनिपते ! तीनों जगत में प्रख्यात बलवान कामदेव को भी आपने बिना शस्त्र से ही जीत लिया, क्या भीगे हुए समुद्र के जल के द्वारा पीया नहीं गया ? अर्थात् पीया गया । ज्ञानामृतेन स्वयन् भविनो वितृष्णां,
स्तृष्णां विवर्द्धयसि पत्कजसेवनस्य ।
एतत् परस्परविरोधि गुणद्वयं ते,
चिन्तो न हन्त महतां यदि वा प्रभाव: ॥ १२ ॥
आप्लाव्यतेऽम्बुधिजलेन जगद्धियेन, पीतं न किं तदपि दुर्धरवाडवेन ? ॥ ११ ॥
ज्ञानरुपा अमृत से भविजन तृष्णा रहित हो जाते हैं; परन्तु आपके चरणों की सेवा करने से तृष्णा बढ़ती है । ये दोनों परस्पर विरोधी गुण हैं, इन महामहिम महापुरुषों का प्रभाव अचिन्त्य होता हैं ।
आपके चरणारविंदों की लम्बे काल तक सेवा करने से संसारी लोगों के पापकर्म नष्ट हे हैं । गहुओं को भी अपने प्रभाव से रोग रहित बना देते हैं, क्या बर्फीले प्रदेश के जंगल में नीलद्रुमाण नहीं होते हैं ? अर्थात् होते हैं ।
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सांसारिकाणि भवता चिरसेवितानि, कर्माणि पातकमयानि विवर्जितानि ।
पातापि कृन्तति विशङ्क्य निजे ह्यपाय,
नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ॥ १३ ॥
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लोक में कलंक रहित संपूर्ण चारित्र, कषाय रहित चित्त और दया से परिपूरित हे मुनिवर कर्मक्षय होने पर मोक्षरूपी लक्ष्मी को चतुर व्यक्ति ही प्राप्त करते हैं । श्यामात्मनोऽपि लघुतां गमिताश्च शिष्टै कारुण्यमीश ! भविनामिह पूज्यतां च । सम्पर्कतोऽत्र तव सिद्धरसस्य यान्ति,
लोके कलङ्कविकलं सकलं चरित्रं, चित्तं कषायरहितं च दयाप्लुतं ते
कर्मक्षये मुनिप ! तेन शिवाङ्गनाया, दक्षस्य सम्भवि पदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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