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की यात्रा करते हुए वे राधनपुर पहुंचे, जहां अंग्रेज विद्वान हारनल के अनेक प्रश्नों का तर्कपूर्ण उत्तर देकर उन्होंने विशेष ख्याति प्राप्त की। यहाँ से तारंगा पालनपुर पाली होते हुए वे फिर जोधपुर गए और वहाँ एक और चतुर्मास किया। इस समय तक उनकी ख्याति देश की सीमाओं का अतिक्रमण करके यूरोप तक पहुंची थी। जोधपुर से वे दिल्ली आए, जहां मालेरकोटला के संघ ने उपस्थित होकर उनसे मालेकोटला चलने की प्रार्थना की। इस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार करके वे मालेरकोटला गए और वहां चतुर्मास किया। जहाँ जहाँ भी वे गए, अपने ओजस्वी प्रवचनों द्वारा वे श्रावकों को तत्त्वज्ञान देते रहे। इस भ्रमण के दौरान उन्होंने कई जिज्ञासु श्रद्धालुओं को विधिवत् दीक्षा देकर अपने शिष्यत्व में स्वीकार किया।
द्वितीय भाग इस भाग में मुनि आत्माराम के, आचार्य श्री विजयानन्द सूरि बनकर, गुजरात से पंजाब वापिस आने के बाद के जीवन का वर्णन किया गया है । इस भाग को आचार्य श्री के जीवन का उत्तरार्द्ध भी कहा जा सकता है। पंजाब में मूर्तिपूजा के प्रचलन के उद्देश्य से उन्होंने श्रावकों को जिन-मन्दिरों के निर्माण की ओर प्रवृत्त किया । इन मंदिरों के लिए उन्होंने गुजरात से तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मंगाई और अनेक मन्दिरों में अपने हाथों बिम्ब प्रतिष्ठित किए।
मालेरकोटला से चलकर वे अमृतसर गए, जहां उन्होंने तीर्थंकर अरनाथ की मूर्ति की विधिवत् स्थापना की। यहाँ से विहार करके उन्होंने अगला चतुर्मास पट्टी में किया, जहाँ दया सेठ नामक श्रावक की प्रार्थना स्वीकार करके उन्होंने अपने शिष्य मुनि श्री वल्लभ विजय से दीक्षा दिलाई। तदनन्तर वे जीरा गए जहाँ राधा बाई नामक श्राविका द्वारा बनवाए मन्दिर में बिम्बों की प्रतिष्ठा की। यहां से चलकर वे होशियारपुर गए और वहां गुज्जर मल द्वारा बनवाए मंदिर में मूर्तियाँ स्थापित की। अगला चतुर्मास उन्होंने होशियारपुर में ही किया और इस दौरान श्री कर्पूर विजय को दीक्षित किया। वे जंडियाला गए, जहाँ उन्हें शिकागो से विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने का निमन्त्रण पहुँचा । वे स्वयं शिकागों नहीं गए लेकिन इस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में मूर्तिपूजक जैन सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए उन्होंने विद्वान श्रावक श्री वीरचन्द राघव जी गाँधी को भेजा। तदोपरान्त पट्टी जाकर उन्होंने अपने शिष्यों को बड़ी दीक्षा' दी और वहीं रहकर 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' नामक ग्रन्थ की रचना सम्पन्न की। इसी दौरान उन्होंने पट्टी के मंदिर में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित की। यहाँ से चलकर वे अम्बाला गए और वहाँ के मन्दिर में भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की । अम्बाला के बाद मूर्ति स्थापना के लिए वे
कवि चन्दूलाल कृत श्री आत्मानंद जीवन चरित्र : परिचय एवं समीक्षा
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