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में ही उनके पिता का देहावसान हो गया. जीरा नामक स्थान पर लाकर उनकी माता ने उनका लालन-पालन किया। यहीं ढूँढक सम्प्रदाय के साधु मुनि श्री जीवन राम के प्रवचनों से प्रभावित होकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने, अपनी माता से अनुमति प्राप्त कर, साधु-जीवन धारण करने का निर्णय लिया। १० शुदी अगहन, सं. १९१० वि. के दिन मालेरकोटला नामक नगर में उनकी दीक्षा हुई तथा वे स्थानकवासी साधु बन गए। अपने गुरु के साथ उन्होंने गुर्जर देश (गुजरात) की यात्रा की । उनका अध्ययन विस्तृत एवं गंभीर होने के कारण उनके मन में अनेक प्रकार की शंकाएं उत्पन्न होने लगीं। गुरु के साथ ही वे आगरा गए। आगरा में वे मुनि रत्नचंद्र के सम्पर्क में आए। यहां चतुर्मास करके उन्होंने उनसे धर्मज्ञान प्राप्त किया। आगरा से विहार करके वे रोपड़ गए, जहां उन्होंने व्याकरण की विद्या प्राप्त की। रोपड़ में ही अपने गुरु का संग त्यागकर वे मालेरकोटला चले गए। वहाँ से सुनाम जाते हुए उन्होंनने रास्ते में ही अपने मुख पर से पट्टी उतार दी और ढूंढक सम्प्रदाय को त्यागकर संवेगी सम्प्रदाय में सम्मिलित होने का निश्चय कर लिया। वे अहमदाबाद गए और मुनि बुद्धि विजय द्वारा संवेगी दीक्षा प्राप्त करके आत्माराम से विजयानन्द हो गए।
__इसके बाद कवि ने उनके चतुर्मासों का वर्णन किया है । ढूँढक मत त्यागने के बाद उन्होंने पहला चतुर्मास अहमदाबाद में किया । उनका दूसरा चतुर्मास भावनगर में रहा । यहाँ से वे आबू
और गिरनार के जैन मन्दिरों के दर्शन करने गए। उनका तीसरा चतुर्मास जोधपुर में हुआ। इन नगरों में अनेक श्रावकों को ज्ञानोपदेश से कृतार्थ कर वे लुधियाना आए और यहां चौमासा किया। यहां से अम्बाला और होशियारपुर होते हुए वे जंडियाला पहुँचे, जहां चतुर्मास के दौरान उनकी पुस्तक 'जैन तत्त्वादर्श' का प्रकाशन हुआ। इसके बाद वे दादनखां होते हुए अगले चतुर्मास के लिए होशियारपुर चले गए। उससे अगला चौमासा लुधियाना में किया और पुन गुजरात भ्रमण का निश्चय करके वे बीकानेर पहुँचे । बीकानेर में चौमासा करके वे पाली चले गए जहाँ उनके प्रिय शिष्य श्री लक्ष्मी विजय का स्वर्गवास हो गया । पाली से वे राजनगर पहुँचे । राजनगर से उन्होंने अनेक जिन प्रतिमाएं पंजाब भिजवाई ताकि पंजाब में मूर्तिपूजा की सुदृढ़ परम्परा का सूत्रपात हो सके। राजनगर के चौमासे के बाद वे खम्भात चले गए, जहाँ उन्होंने 'अज्ञान तिमिर भास्कर' नामक ग्रन्थ की रचना की । उससे अगला चतुर्मास सूरत में व्यतीत करके वे भरहुत होते हुए सिद्धगिरी गए, जहाँ चतुर्मासोपरान्त समस्त संघ ने नरसी केशव धर्मशाला में आयोजित एक विशाल उत्सव में उनको 'आचार्य' पद प्रदान किया गया। अनेक तीर्थ-स्थानों
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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