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है । यद्यपि साम्प्रदायिक वातावरण में पले और पुष्ट हुए मानस को बदलना अत्यन्त कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है । साम्प्रदायिक मोह को तोड़कर इस वातावरण से अब हटना होगा ।
उपरोक्त विचारों को अपनाकर पू. गुरुदेव अंतरंग संवेगी और बहिरंग स्थानकवासी रखकर कुछ साल स्थानकवासी संप्रदाय में ही रहे और कुछ स्थानकवासी साधु- विश्नचंदजी, चंपालालजी, हाकम रायजी, निहाल चंदजी आदि की सहायता से श्रावक वर्ग में भी अपने विचार प्रवाह को प्रवाहित किया ।
सारी पूर्व तैयारियों के पश्चात् सभी की अनुमति से अहमदाबाद में प. पू. बुटेरायजी म. सा. के चरणों में अपना जीवन समर्पित किया । वि. सं. १९३२ में संवेगी दीक्षा अंगीकार की और जिन शासन के गगनाकाश में तपगच्छ के आभामंडल में आनंद विजयजी म. सा. और बाद में पालिताणा में हिन्दुस्तान भर के सभी श्रीसंघों की विनती से प. पू. विजयानंद सूरीश्वरजी म. सा. रूप भास्कर बनकर भास्वर हुए एवं समस्त जैन-अजैन भाविक भक्तों को प्रकाशमान करने का श्रेय प्राप्त किया ।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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