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लिए एक साधन विशेष ही है।
एक बात और भी है, जैन धर्म की परंपरा को प्राचीन सिद्ध करने के लिए मंदिर और मूर्ति के अलावा और कौन सा साधन है? अगर जिन मंदिर और जिन प्रतिमा को जैन परंपरा से हटा दिया जाय तो इसकी ऐतिहासिक प्राचीनता उपहास जनक हो जायेगी, क्योंकि भूगर्भ से निकलने वाली सैंकड़ों हज़ारों सालों की जिन प्रतिमायें ही तो जैन परंपरा की प्राचीनता का जीता-जागता प्रत्यक्ष प्रमाण है।
___ आगरा के चातुर्मास में मुनि श्री रत्नचंदजी के सम्पर्क में आने और जैन धर्म के सिद्धान्तों का शास्त्रीय पर्यालोचन करने के बाद पू. गुरुदेव के जीवन में एक नया ही मोड आया। इसके पूर्व
और पश्चात् के कई सालों के निरन्तर अध्ययन-अध्यापन और चिंतन-मनन के दोहन के बाद मन में दृढ़ विश्वास हो गया कि हमारा सम्प्रदाय लौंका और लवजी के असंतुष्ट और विचार भ्रष्ट मस्तिष्क की उपज है, उसे भ. महावीर के साथ जबरदस्ती जोड़ने की कोशिश हो रही है । निष्पक्ष होकर सोचें तो हमारा पंथ भगवान के निर्दिष्ट मार्ग से आचार-विचार-वेषभूषा- ज्ञान-क्रियासिद्धांतादि सभी से विपरित ही दृष्टिगोचर होता है। लौंकाजी ने मूर्ति का विरोध किया और लवजी ने मुंहपत्ति बांधने की प्रथा डाली । एक ने भगवान की आज्ञा का विरोध किया और दूसरे ने जिसकी आज्ञा नहीं दी थी, उसका प्रवर्तन किया।
हमारी परंपरा लौंकाजी तक जाकर रुक जाती है। उसका भ. महावीर से कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं इसलिए भ. महावीर की परंपरा ही प्राचीन और प्रमाणिक है। उनकी परंपरा के अनेक, आगमोदधि के सर्वेसर्वा पारगामी, विशिष्ट ज्ञानी पूर्वाचार्यों के अनेक सद्ग्रंथों की भरमार मिलती है, जबकि हमारे मत में तो एक भी ऐसा विद्वद्वर्य नहीं । वैसे देखा जाय तो सम्प्रदाय का आद्य स्थापक विशिष्ट ज्ञानी-चारित्रशील होना चाहिए, जबकि लौंकाजी और लवजी में इन चीजों का नितान्त अभाव है।
व्याकरण को व्याधिकरण कहना और बत्तीस मूलागमों से दूसरे आगमों और उस पर लिखी नियुक्ति-भाष्य- टीकादि पंचांगी की अवहेलना और विरोध करने का कारण केवल मूर्तिपूजा विरोधी दुर्भावना से अत्यन्त संकुचित और हठीली मनोवृत्ति ही है। जहां मूल मान्यतानुसार ३२ मूलागमों का भी मनगढंत अर्थ करके उसे मानते हुए भी उनमें लिखी बातों का भी उल्लंघन किया जाता हो, ऐसी कदाग्रही और हठाग्रही परंपरा; जो आत्मा को दुर्गति का भाजन बनाये, उस परंपरा का, मेरे जैसे सत्य गवेषक आत्मा के लिए, अनुसरण करना सर्वथा अनुचित श्रीमद् विजयानंद सूरि और मूर्तिपूजा
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