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आचार्य श्री :- फिर माँगने ही की बात आ गई । जंगल के मालिक से अनुमति माँगने की अपेक्षा भीख माँगना क्या बुरा है। यहाँ भी माँगना है वहाँ भी माँगना है। माँगना सभी जगह एक समान है। आगे आचार्य श्री ने अपने भिक्षा की और व्याख्या करते हुए समझाया :- हम अगर कोई कार्य करने लग जाएंगे तो हमने जो आत्म कल्याण के साथ-साथ दूसरों के कल्याण का जो व्रत लिया है वह समाप्त हो जाएगा। वहाँ जीवन अपने तक ही सीमित हो जाएगा। जो अपनी चिन्ता से स्वार्थ से ऊपर नहीं उठा वह दूसरे का क्या कल्याण करेगा । दूसरी बात हम त्याग का उपदेश देते हैं । तो हमारा जीवन भी स्वार्थ से परे त्यागपूर्ण होगा तभी हमारा उपदेश असरकारक हो सकता है। तीसरी बात हम लोगों को उपदेश देते हैं, यथा शक्ति साधना करते है यह कार्य तब होता है जब व्यक्ति को आजीविका की चिन्ता नहीं रहती।
आचार्य श्री की भिक्षा की इस सरल सहज व्याख्या से मुसलमान विद्वान प्रभावित हुआ। उन्होंने स्वीकार किया कि जो दूसरों के लिए जीते हैं उनके लिए भिक्षा माँगना कोई बुरी बात नहीं। प्रत्युत्पन्नमति
एक बार आचार्य विजयानंद सूरि म. और उनके मुनि मण्डल को विंध्याचल की पर्वतमालाओं के बीच होकर गुजरना पड़ा। विंध्याचल चोरों, डाकुओं, लुटेरों, और हत्यारों के लिए प्राचीन काल से ही कुख्यात रहा है। विंध्याचल से गुजरने वाले पथिकों की हत्या कर दी जाती थी या उन्हें लूट लिया जाता था। विजयानंद सूरि म. के सामने भी यही प्रश्न आकर खड़ा हुआ। जाएं तो कैसे जाएं। जीवन बचाने का भय प्रत्येक प्राणी में रहता है। अन्त में निर्भीक होकर उस भयानक वन पथ से जाना निश्चित हुआ।
चारों और भयानक जंगल था। बड़े बड़े पहाड़, गहरी खाइयाँ, पथरीला रास्ता। उस निर्जन पथ से वह श्रमण मंडल बढ़ा जा रहा था।
आखिर वही हुआ जिसकी आशंका थी। कुछ दूरी पर तीस-पैंतीस बन्दूक धारी लुटेरे एक छोटे से पहाड़ से उतरते हुए दिखाई पड़े। कुछ समय के बाद वे रास्ते पर आ जाएंगे। अब आगे क्या होगा। वह कल्पनातीन था। किस समय क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता था। न कोई आश्रय स्थान न कोई सहायक।
विजयानंद सूरि म. ने तुरन्त एक युक्ति सोची । सब साधुओं को निर्देश दिया कि अपना जो काला डंडा है उसे कंधे पर रख लो और पंक्तिबद्ध सैनिकों की चाल में चलो।
श्री विजयानंद सूरिः जीवन प्रसंग
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