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इन श्रावकों ने एक समिति गठित की जिसे पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को 'आचार्य' पदवी स्वीकार करने की विनती करन की जिम्मेवारी सौंपी गई।
प्रमुख श्रावकों के इस निर्णय का यतियों ने भयंकर विरोध किया। और जो श्रावक इस आयोजन की भूमिका बना रहे थे, उन्हें अनेक प्रकार की धमकियां दी गई। फिर भी यह कार्य आगे ही आगे बढ़ता रहा और समिति ने पालीताणा जाकर पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज से आचार्य पद ग्रहण करने की विनम्र प्रार्थना की।
उन्होंने समिति की इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया और कहा कि मैं इस महान् पद के लिए अयोग्य हूं । मुझसे जो दूसरे पूज्यगण ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं, उन्हें यह पद दिया जाए।
समिति ने उनसे आग्रह किया कि आपसे योग्य हमें कोई भी दिखाई नहीं देता। आप ही एकमात्र व्यक्ति हैं जो आचार्य बनकर हमारा नेतृत्व कर सकते हैं । इस पर यति लोग हमें निरंतर धमकियां दे रहे हैं, उनका कहना है कि हमारे रहते हुए आचार्य पदवी लेने की कौन हिम्मत कर सकता है ? जैन शासन की रक्षा के लिए आपको इतनी हिम्मत तो करनी ही होगी।
समिति की यह बात सुनकर वे चुप हो गए। वे कोई उत्तर नहीं दे पाए। और अन्त में विवश होकर उन्होंने स्वीकृति दे दी।
उनकी स्वीकृति का समाचार सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने में फैल गया। जैनों के आनंद की सीमा न रही। और चातुर्मास के बाद मार्गशीर्ष वदी पंचमी, गुजराती कार्तिक वदी पंचमी के शुभ दिन पालीताणा की नरसी केशवजी धर्मशाला के विशाल प्रांगण में आचार्य पद समारोह होना निश्चित हुआ।
'श्रीसंघ आमंत्रण पत्रिका छपवाकर भारत के सभी श्रीसंघों को भेजदी गई । आमंत्रण प्राप्त होते ही भिन्न-भिन्न श्रीसंघों के प्रतिनिधि आने प्रारंभ हो गए।
मार्गशीर्ष वदी पंचमी तक पैंतीस हजार लोग पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के आचार्य पद अलंकरण के ऐतिहासिक समारोह में सम्मिलित होने के लिए आ पहुंचे। और अत्यन्त हर्ष
और उल्लास के साथ हजार-हजार कंठों के जयकारों के बीच उन्हें आचार्य पद से विभूषित किया गया। नाम उनका आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज रखा गया। उनकी इस आचार्य पदवी की ऐतिहासिक घटना के साथ ही जैन शासन के दो सौ साठ वर्ष का अंधकार युग समाप्त हो गया और एक उज्ज्वल एवं स्वर्णिम नव युग का शुभारंभ हो गया। २८४
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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