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भगीरथ पुरुषार्थ करना पड़ा होगा इसका अनुमान सहज ही हो सकता है। कई यतियों ने उन्हें प्राण तक लेने की धमकी दी थी। कईयों ने उन पर मंत्र-तंत्र का प्रयोग किया था; पर पूज्य श्री
आत्मारामजी महाराज को परास्त करने का एक भी उपाय उनका सफल नहीं हुआ। वे उनके पवित्र जीवन के विषय में अनेक प्रकार की निंदात्मक और घृणास्पद कहानियां समाज में प्रचलित करते थे और लोगों को उनके विरुद्ध निरंतर भड़काते रहते थे। किन्तु लोगों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जैन धर्म और इतिहास के यति युग को समाप्त करने का सारा श्रेय पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज को जाता है।
वि. सं. १९४३ और ई. सन् १८८६ में उन्होंने पालीताणा में चातुर्मास किया।
यहां यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि पूज्य श्रीआत्मारामी महाराज की शत्रुजय महातीर्थ पर एवं इस तीर्थ के अधिपति प्रथम तीर्थंकर भगवान श्रीआदिनाथ पर अनन्य और अविचल आस्था-श्रद्धा थी । अन्य तीर्थों की अपेक्षा इस महातीर्थ के प्रति उनका प्रबल आकर्षण था । बार-बार उनकी इच्छा शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा करने की होती थी। उन्होंने बारह स्तवन शत्रुजय और आदिनाथ दादा की भक्ति करते हुए रचे हैं । वे दादा के दरबार में पहुंचकर अपनी व्यथा सुनाते थे।
शत्रुजय महातीर्थ की पावन भूमि पर चातुर्मास करने की उनकी विगत कई वर्षों से हार्दिक इच्छा थी। उनकी यह इच्छा ई. सन् १८८६ में पूर्ण हुई । पालीताणा के यतियों ने उनके इस चातुर्मास का घोर विरोध किया था। उनके चातुर्मास प्रवेश के स्वागत जुलूस को पालीताणा राज्य के सिपाहियों ने सुरक्षा प्रदान की थी। फिर भी वहां के यतियों ने उनके प्रवेश में उपद्रव खड़ा किया था। उनकी निश्रा में चातुर्मास करने के लिए भारत के बड़े-बड़े श्रीसंघों के प्रमुख श्रावक पालीताणा आकर रहे थे ।
इस चातुर्मास में सम्पूर्ण भारत के श्रीसंघों के प्रमुख व्यक्तियों ने पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को आचार्य पदवी से विभूषित करने का निर्णय लिया।
उस समय आत्मारामजी जैसे महान और अद्वितीय विद्वान, अनुपम शास्त्र वेत्ता, तार्किक शिरोमणि, अप्रतिम प्रतिभाशाली, चारित्र चूड़ामणि, सर्व गुण सम्पन्न साधु कोई भी नहीं था। समग्र भारत के कोने-कोने में उनकी कीर्तिगाथाएं गाई जाती थी। वे 'आचार्य' पद के सर्वथा योग्यतम व्यक्ति थे । प्रमुख संघों के श्रावकों ने जो निर्णय लिया, उसका सभी ने स्वागत किया।
श्रीमद् विजयानंद सूरि: जीवन और कार्य
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