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उत्सव गणेशचन्द्रजी के घर मनाया गया। बालक का नाम आत्माराम रखा गया ।
बालक आत्माराम का बचपन अपने माता पिता के स्नेहिल आंचल की छाया में लहरा गांव के निर्दोष प्राकृतिक वातावरण में बीता ।
जिस समय बालक आत्माराम दस वर्ष के हुए उस समय गणेशचन्द्र और रुपादेवी के प्रसन्न सांसारिक जीवन में एक दुःखद घटना घटित हुई। यह घटना उनके जीवन में एक तूफान बनकर आई और सुख, संतोष तथा शान्तिपूर्वक जी रहे परिवार को शोक, संताप और दुःख के महासागर में डुबोकर चली गई। इस घटना ने उस छोटे से परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया । पिता गणेशचन्द्र और माता रूपादेवी ने अपना छोटा सा परिवार बसाने की जो सुखद भविष्य की कल्पना की थी, वह उनकी कल्पना अंधकारमय वास्तविकता में बदल गई ।
लहरा गांव अत्तरसिंह सोढ़ी नाम के ठाकुर के अधिकार में था । सम्पूर्ण गांव उसकी आज्ञा का अनुसरण करता था। वह ठाकुर भी था और धर्मगुरु भी । एक दिन वह अपने लहरा गांव की प्रजा के निरीक्षण के लिए आया। गांव में घूमते हुए उसने दस वर्षीय बालक आत्माराम को गली में खेलते हुए देखा और देखते ही उसकी अनुभवी नज़रों ने परख लिया कि यह बालक
अद्भुत और विलक्षण महापुरुष बनने वाला है । यदि यह मेरे पास रहेगा तो निश्चय ही मेरा सुयोग्य उत्तराधिकारी बनेगा। यह मेरा और मेरे कुल का नाम उज्ज्वल करेगा ।
अत्तरसिंह सोढ़ी ने बालक आत्माराम को अपने पास रखने का अपने मन में दृढ़ निर्णय कर लिया। संयोग की बात यह थी कि सोढ़ी स्वयं निःसंतान था । इस के लिए उसने गणेशचन्द्र को अपने पास बुलाया और आत्माराम को सौंपने की आज्ञा की ।
गणेशचन्द्र बालक आत्माराम को अपने से अलग नहीं करना चाहते थे । अतः उन्होंने सोढ़ी को स्पष्टरूप से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि मैं अपने प्राण दे सकता हूं, पर आत्माराम को नहीं दे सकता ।
अत्तरसिंह सोढ़ी गणेशचन्द्र को अपनी प्रजा से अधिक कुछ नहीं समझता था । सोढ़ी ने पहले आज्ञा करके, फिर स्नेह पूर्वक और अन्त में धमकी देकर बालक आत्माराम को गणेशचन्द्र से लेना चाहा, किन्तु इन सभी प्रयासों का गणेशचन्द्र पर कोई असर नहीं हुआ ।
अत्तरसिंह सोढ़ी को मना करने का अर्थ था- -मौत को बुलाना, उसे तो यह कल्पना भी नहीं थी कि कोई मेरे आदेश को ठुकरा भी सकता है । उसके जीवन में गणेशचन्द्र पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसकी आज्ञा को मानने से इन्कार कर दिया । अत्तरसिंह ने अपनी आज्ञा के उल्लंघन
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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