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श्रीमद् विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी :
नवीन उपलब्धियों पर एक नजर
मुनि नवीन चन्द्र विजय
तीर्थंकरों, गणधरों, अवतारिक पुरुषों और प्रभावक आचार्यों की जन्म और स्वर्गवास तिथि - दिवस आदि मनाने की हमारी भारत की प्राचीन परंपरा है। इन विशिष्ठ महापुरुषों के ये आविर्भूति और अन्तर्भूत दिवस धीरे-धीरे संस्कृति का अंग बनकर पर्व-त्यौहार भी बन जाया करते हैं । दीपावली, रामनवमी और कृष्ण जन्माष्टमी आदि ऐसे ही दिन हैं जो हमारी संस्कृति के अंग बन गए हैं।
जैन धर्म में तीर्थंकरों के पांच कल्याणक माने जाते हैं च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक । तीर्थंकरों के ये पवित्र प्रसंग संसार के कल्याण के लिए होते हैं अत: इन्हें कल्याणक कहा जाता है । इन कल्याणकों को मनुष्य और देव महोत्सव रूप में मनाते हैं ।
तीर्थंकरों की अनुपस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व करते हैं- छत्तीस गुणों के धारक आचार्य । पंच परमेष्ठी में तृतीय स्थान आचार्य का है। आचार्य ही अरिहंत और सिद्ध से परिचित कराते हैं । चतुर्विध संघ का नेतृत्व आचार्य करते हैं । धर्म संघ के वे महान उपकारी होते हैं। अपने उदात्त चारित्रिक जीवन, साहित्य सृजन और शासन प्रभावना के कार्यों के द्वारा काल की पृष्ठभूमि पर वे अपनी अलग पहचान छोड़ जाते हैं। भद्रबाहु स्वामी, वज्र स्वामी, सुहस्ति सूरि, अभयदेव सूरि, हेमचन्द्राचार्य, हरिभद्र सूरि और हीर विजय सूरि आदि ऐसे ही प्रभावक आचार्य हैं जिनकी परंपरा बहुत लम्बी है। ऐसे चार्यों के पुनीत स्मरण से ही हमारा सर श्रद्धा से नत हो जाता है, हृदय में एक अनिर्वचनीय अहोभाव जागृत होता है। ऐसे महापुरुष जिस दिन जन्म लेते हैं वह दिन भी महान हो जाता है, जिस स्थान पर जन्म लेते हैं वह स्थान भी तीर्थ धाम बन जाता है, उनकी स्वर्गगमन तिथि भी पुण्य तिथि बन जाती है । वर्ष पर वर्ष, दशक पर दशक और सदियों पर सदियाँ बितती चली जाती है; किन्तु उनके अमर नाम की उज्ज्वल - धवल आभा कभी धूमिल नहीं होने पाती । यही नहीं प्रत्येक व्यतीत शताब्दी उनके नाम-काम को दीप्तिमय करती रहती है ।
जैन धर्म की श्रमण परंपरा के स्वर्णिम पृष्ठों पर एक शताब्दी पूर्व एक कालजयी
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