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होती तो वे ढूंढियापन ही क्यों छोड़ते ? अपने आप दीक्षित होना जैन शासन की रीति है, इसलिए
आचार्य श्री ने बाईस बरस तक ढूंढियापन में बिताया था उतने समय में जितने दीक्षित हुए जितनों ने सम्वेगीदीक्षा ली थी, उन सबको वंदना करना स्वीकार कर उन्होंने संवेगी दीक्षा ली और जगत को अपनी निरभिमानता का प्रमाण दिया । उसका फल यह हुआ कि वे पहले की अपेक्षा अधिक आदर सत्कार के भागी हुए। इस बात को हमें हमेशा याद रखना चाहिए। वे कैसे निर्भय और विचारशील थे इस विषय में श्रीयुत् मोतीचन्द कापडिया सॉलिसिटर कह चुके हैं, इसमें मैं थोड़ा और जोडूंगा । आचार्य श्री ने जैन प्रश्नोत्तर ग्रन्थ में लिखा है कि, जैनों की भिन्न भिन्न जातियों के एकत्र होने से जैनों की उन्नति होगी। वह बात आज नहीं, मगर कालान्तर कुछ काल के बाद होती दिखाई देती है । उसे तुम खुद न करोगे । मगर जमाना धीरे धीरे जबर्दस्ती तुमसे करा लेगा ।
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महाशयों ! स्वर्गीय आचार्य श्री के अनेक गुणों का वर्णन किया गया है । उनका अपने हो सके उतना अनुकरण कर जयन्ती मनाने के उत्साह को सफल करना चाहिए। एक क्षत्रिय वीर का वर्णन बगैर जोश के नहीं हो सकता। जोश में यदि मुझसे कुछ अनुचित बोला गया हो तो, आपने उसकी उपेक्षा की है। यह बताने के लिए स्वर्गीय आचार्य महाराज के नाम की और शासननायक प्रभु श्री महावीर स्वामी के नाम की जय बोल मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूँ ।
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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