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आचार, बुद्धि और चरित्र दोनों के समग्र विकास को शिक्षा का फलित माना है।
आधुनिक शिक्षा-शास्त्रियों- फ्रोबेल, डीवी, मोन्टेसरी आदि ने शिक्षण की अनेक विधियों-प्रणालियों (Teaching-Method) का प्रतिपादन किया है, किन्तु मुख्य शिक्षा प्रणालियां दो ही हैं—१. अगमन (Inductive) और २. निगमन (Deductive) ।
___ अगमन शिक्षा प्रणाली में शिक्षक अपने शिष्यों को कोई सिद्धांत या विषय समझाता है और शिष्य उसे समझ लेते है, कंठस्थ कर लेते हैं । शिक्षक के पूछने पर (अथवा प्रश्नपत्र के प्रश्नों के उत्तर में) जो कुछ समझा है, याद किया है वही बोल या लिख देते हैं। आजकल निबंधात्मक प्रश्नोत्तर इसी शिक्षण प्रणाली के अन्तर्गत है।
निगमन प्रणाली में पहले परिणाम (फल) बताकर फिर सिद्धान्त निश्चित किया जाता है। इस प्रणाली में छात्रों से उत्तर निकलवाया जाता है। इससे छात्रों की बुद्धि एवं योग्यता (Intelligence) की ज्ञात हो जाती है। तथा कौन छात्र कितना मंदबुद्धि या तीव्रबुद्धि वाला है, यह भी पता चल जाता है । लघु-उत्तरीय प्रश्न इसी प्रणाली के अन्तर्गत हैं । इन दोनों ही प्रणालियों से मानव का ज्ञान और बुद्धि तथा व्यक्तित्व विकसित होता है ।।
जैन-शिक्षा-प्रणाली प्राचीन जैन शिक्षा प्रणाली में इन दोनों विधियों का समन्वय तो है ही, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे भी तत्व हैं, जिनसे व्यक्तित्व का समग्र विकास होता है।
उपरोक्त दोनों शिक्षण प्रणालियां सिर्फ ज्ञान और बुद्धि के विकास तक ही सीमित हैं, किन्तु जैन शिक्षा प्रणाली शैक्ष या शिष्य की पात्रता, विनय, उसकी आदतों, चरित्र, अन्तर्हदय की भावनाओं आदि व्यक्तित्व के सभी घटकों पर ध्यान देकर शैक्ष के बहिरंग और अन्तरंग जीवन तथा उसके व्यक्तित्व का समग्र विकास करती है। सभी दृष्टियों से उसके व्यक्तित्व को तेजस्वी, प्रभावशाली और आकर्षक (Dynamic Personality) बनाती है। जैन आचार्यों ने बताया है :
सिक्खा दुविहा - गहण सिक्खा - सुत्तत्थ तदुभयाणं आसेवणा सिक्खा - पडिलेहणा...उवट्ठावणा, व्रतादि सेवाना...
पंचकल्प भाष्य-३
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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