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________________ विशेषावश्यक भाष्य है। नन्दीसूत्र में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का उल्लेख है१८ तो जिनभद्र के विशेषावश्यक भाष्य में इन्द्रिय एवं मन से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है। वे स्पष्टरूप से कहते हैं—इंद्रियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं १९ भट्ट अकलंक ने संभव है इसी आधार पर प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक एवं मुख्य प्रत्यक्ष भेद किए हैं। जैन आगमों में प्रतिपादित अवधि, मन: पर्याय एवं केवल ज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष हैं अत: इन्हें वास्तविक, मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष माना गया विशेषावश्यक भाष्य के प्रभाव से ही संभवत: सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय ये दो भेद किए गए।° अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष में मानस प्रत्यक्ष अर्थात् मन से होने वाले प्रत्यक्ष को सम्मिलित किया गया। इससे पूर्व नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष शब्द प्रचलित था जो अपने में अवधि आदि ज्ञानों का अन्तर्भाव करता था, मन: प्रत्यक्ष का नहीं। आगम में प्रतिपादित श्रुतज्ञान ही आगम-प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। अनुयोगद्वार सूत्र में आगम-प्रमाण के लौकिक और लोकांतर ये दो भेद प्रतिपादित हैं२२, ये ही दोनों भेद उत्तरकाल में जैनन्याय में प्रसिद्ध हुए हैं। श्रुतज्ञान के आधार पर नय, निक्षेप एवं स्याद्वाद का निरूपण भी जैन न्याय ग्रंथों का विषय बना है। अनेकान्तवाद का स्थापन करने वाले समन्तभद्र एवं सिद्धसेन के ग्रन्थ इसके लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क प्रमाण के स्थापन का आधार प्राकृत साहित्य में अनुपलब्ध है। भट्ट अकलंक के इस नये स्थापन का आधार आचार्य उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र है, जिसमें 'मति:स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' सूत्र के अन्तर्गत स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, एवं अभिनिबोध शब्दों को मतिज्ञान का पर्यायार्थक बतलाया गया है। इनमें से स्मृति, संज्ञा एवं चिन्ता शब्दों से भट्ट अकलंक ने क्रमश: स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क प्रमाणों का उद्भावन किया है ।२२ अभिनिबोध शब्द से वे अनुमान प्रमाण को लेते हैं । इस प्रकार स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान प्रमाण जो परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत विभक्त हैं, वे सब मतिज्ञान के ही विभिन्न रूप हैं। इस प्रकार आगम में निरूपित मतिज्ञान या आभिनिबोधिक ज्ञान जैनन्याय में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष एवं चार विभिन्न परोक्ष प्रमाणों में व्याप्त है। __ अवग्रह एवं ईहाज्ञान को जैनदार्शनिकों द्वारा प्रमाण की कोटि में लिए जाने का कारण भी प्रमाण को ज्ञानात्मक स्वीकार करना है । अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा ये चारों मतिज्ञान के भेद हैं । नन्दीसूत्र में इन्हें श्रुत-निश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान के भेद माना गया है । इन चार में अवग्रह एवं ईहाज्ञान की निश्चयात्मकता को लेकर जैनदार्शनिक एकमत नहीं हैं। अवग्रह भी फिर दो प्रकार का है—व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह । इनके स्वरूप के विषय में जैनदार्शनिकों में एकरूपता १२८ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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