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दो भेदों में विभक्त किया गया है—इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइंद्रिय प्रत्यक्ष के रूप में।११ इन्द्रियप्रत्यक्ष के पुन: पांच भेद किए गए हैं- श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, चक्षु इन्द्रिय प्रत्यक्ष आदि । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष में अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान और केवल ज्ञान को सम्मिलित किया गया है ।२ आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष ज्ञान के भेदों में प्रतिपादित किया गया है । भगवती सूत्र के शतक आठ उद्देशक दो में पांच ज्ञानों का वर्णन है । षट्खण्डागम में ज्ञानावरण कर्म का विवेचन करते समय पांच ज्ञानों का प्रतिपादन है। इनके अलावा कम्मपयडि, एवं कर्मग्रंथों में भी पंचविध ज्ञानों की चर्चा है । यह समस्त ज्ञान-चर्चा प्रमाणचर्चा का अंग बनी है।
प्रमाण में ज्ञान की व्यवसायात्मकता स्वीकार करने का आधार जैन आगम स्थानांगसूत्र में प्रमाण के लिए व्यवसाय शब्द का प्रयुक्त होना है। स्थानांगसूत्र में व्यवसाय के तीन भेद किए हैं—प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक और अनुगामी ।१२ टीकाकार अभयदेव सूरि के अनुसार प्रात्ययिक शब्द से आगम प्रमाण एवं अनुगामी शब्द से अनुमान प्रमाण का बोध होता है। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार ये ही तीन व्यवसाय सिद्धसेन के 'न्यायावतार' एवं हरिभद्र के 'अनेकान्तजयपताका' ग्रंथों में प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम इन तीन प्रमाणों के रूप में निरूपित हुए हैं। व्यवसाय शब्द का प्रयोग न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष-लक्षण के अन्तर्गत हुआ है किन्तु वहां वह प्रमाण सामान्य का लक्षण नहीं बना है। स्थानांगसूत्र में प्रयुक्त व्यवसाय शब्द प्रमाण-सामान्य का द्योतक है।
प्रमाण स्व एवं पर दोनों का व्यवसायक होता है। इस मान्यता का प्राकृत-साहित्य में आधार आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा नियमसार ग्रन्थ में प्रतिपादित ज्ञान की स्वपर प्रकाशकता है। आचार्य कुन्दकुन्द प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने ज्ञान एवं दर्शन दोनों को स्वपर प्रकाशक सिद्ध किया है। आचार्य सिद्धसेन एवं समन्तभद्र भी अपने प्रमाण-लक्षणों में उसे स्वपरावभास कहते हैं।१६ यद्यपि ज्ञान की स्वपर प्रकाशकता षटखण्डागम की धवला टीका में विवाद का विषय रही है। वहां आचार्य वीरसेन ने दर्शन को स्वप्रकाशक एवं ज्ञान को पर (अर्थ) प्रकाशक स्वीकार किया है। तथापि अधिकतर दार्शनिक ज्ञान को स्वपरप्रकाशक मानते हैं इसीलिए प्रमाण को स्वपरव्यवसायात्मक प्रतिपादित किया गया है। ज्ञान या प्रमाण स्व है तथा उससे भिन्न सभी पदार्थ पर।
जिस प्रकार प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों का आधार नन्दीसूत्र एवं स्थानांगसूत्र में प्रतिपादित ज्ञान के पच्चक्ख और परोक्ख भेद हैं, उसी प्रकार प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक भेद का आधार नन्दीसूत्र एवं जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण द्वारा प्राकृत भाषा में रचित
प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध जैन न्याय के बीज
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