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१०. ऋषिभाषित-नियुक्ति
वर्तमान में उपर्युक्त दस में से आठ ही नियुक्तियां उपलब्ध हैं, अन्तिम दो अनुपलब्ध हैं। आज यह निश्चय कर पाना अति कठिन है कि ये अन्तिम दो नियुक्तियां लिखी भी गयी या नहीं? क्योंकि हमें कभी भी ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार पर हम यह कह सकें कि किसी काल में ये नियुक्तियां रहीं और बाद में विलुप्त हो गयीं। यद्यपि मैंने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में यह सम्भावना व्यक्त की है कि वर्तमान 'इसीमण्डलत्थू' सम्भवत: ऋषिभाषित नियुक्ति का परिवर्तित रूप हो, किन्तु इस सम्बन्ध में निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है । इन दोनों नियुक्तियों के सन्दर्भ में हमारे सामने तीन विकल्प हो सकते हैं
१. सर्वप्रथम यदि हम यह मानें कि इन दसों नियुक्तियों के लेखक एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इन नियुक्तियों की रचना उसी क्रम में की है, जिस क्रम से इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में हैं, तो ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने जीवन-काल में आठ नियुक्तियों की ही रचना कर पायें हों तथा अन्तिम दो की रचना नहीं कर पायें हों।
२. दूसरे यह भी सम्भव है कि ग्रन्थों के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए प्रथम तो लेखक ने यह प्रतिज्ञा कर ली हो कि वह इन दसों आगम ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखेगा, किन्तु जब उसने इन दोनों आगम ग्रन्थों का अध्ययन कर यह देखा कि सूर्य-प्रज्ञप्ति में जैन-आचार मर्यादाओं के प्रतिकूल कुछ उल्लेख है और ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल आदि उन व्यक्तियों के उपदेश संकलित हैं जो जैन परम्परा के लिए विवादास्पद हैं, तो उसने इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित कर दिया हो ।
३. तीसरी सम्भावना यह भी है कि उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी हों किन्तु इनमें भी विवादित विषयों का उल्लेख होने से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो और फलत: अपनी उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे विलुप्त हो गयी हों। यद्यपि यहाँ एक शंका हो सकती है कि, यदि जैन आचार्यों ने विवादित होते हुए भी इन दोनों ग्रन्थों को संरक्षित करके रखा तो उन्होंने इनकी नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा?
४. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में मान्य गोविन्दनियुक्ति विलुप्त हो गई है, उसी प्रकार ये नियुक्तियां भी विलुप्त हो गई हों।।
नियुक्ति साहित्य में उपरोक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति एवं आराधनानियुक्ति को भी समाविष्ट किया जाता है, किन्तु इनमें से
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श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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