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निक्षेप-पद्धति रही है। जैन परम्परा में वाक्य के अर्थ का निश्चय नयों के आधार पर एवं शब्द के अर्थ का निश्चय निक्षेपों के आधार पर होता है । निक्षेप चार हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इन चार निक्षेपों के आधार पर एक ही शब्द के चार भिन्न अर्थ हो सकते हैं । निक्षेप-पद्धति में शब्द के सम्भावित विविध अर्थों का उल्लेख कर उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है। उदाहरण के रूप में आवश्यक-नियुक्ति के प्रारम्भ में अभिनिबोध ज्ञान के चार भेदों के उल्लेख के पश्चात् उनके अर्थों को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि अर्थों (पदार्थो) का ग्रहण अवग्रह है एवं उनके सम्बन्ध में चिन्तन ईहा है। इसी प्रकार नियुक्तियों में किसी एक शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का भी संकलन किया गया है, जैसे—आभिनिबोधिक शब्द के पर्याय हैं—ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा । नियुक्तियों की विशेषता यह है कि जहां एक ओर वे आगमों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करती हैं, वहीं आगमों के विभिन्न अध्ययनों और उद्देशकों का संक्षिप्त विवरण भी देती हैं । यद्यपि इस प्रकार की प्रवृत्ति सभी नियुक्तियों में नहीं है, फिर भी उनमें आगमों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का तथा उनकी विषय-वस्तु का अति संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो जाता है।
प्रमुख नियुक्तियाँ आवश्यक नियुक्ति में लेखक ने जिन दस नियुक्तियों के लिखने की प्रतिज्ञा की थी, वे निम्न हैं
१. आवश्यक-नियुक्ति २. दशवैकालिक-नियुक्ति ३. उत्तराध्ययन-नियुक्ति ४. आचारांग-नियुक्ति ५. सूत्रकृतांग-नियुक्ति ६. दशाश्रुतस्कंध-नियुक्ति ७. बृहत्कल्प-नियुक्ति ८. व्यवहार-नियुक्ति
९. सूर्य-प्रज्ञप्ति-नियुक्ति नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन
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