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जीवनपरिचय तथा कार्य
निर्वाण भूमि की तरफ हीरकजयंति महोत्सव के उपरान्त आचार्यश्री के विचार दिन प्रतिदिन निर्वाण भूमि की तरफ गमन करने के लिय होते चले । निर्वाण भूमिपर ही अपने शेष जीवनी के अंतिम दिन व्यतीत करने के विचार उत्पन्न हुए। श्री मुक्तागिरि अथवा कुंथलगिरि क्षेत्र निर्वाणभूमि निश्चित की गई। किसी के कहने से मात्र महाराजजी ने कुंथलगिरि क्षेत्र निश्चित किया हो ऐसा कहना उचित नहीं। वह तो अज्ञानभरा कोरा विकल्प ही है । भाव अपने और साधु के माथे मारना विचारशून्य प्रवृत्ति होगी। साधुजनों ने अंतिम सल्लेखना किसी निकटवर्ति सिद्धक्षेत्र पर धारण करनी चाहिए - यह शास्त्रविधान है तथा प्रशस्त प्राचीन परंपरा भी है। तदनुसार महिनों के विचारों के अनंतर आचार्यश्री ने श्री कुंथलगिरी सिद्धक्षेत्र ही अंतिम सल्लेखना का इष्ट स्थान निश्चित किया ।
जब आचार्य श्री गजपंथ क्षेत्र पर थे उसी समय, विजयादशमी के शुभ मुहूर्त पर आचार्यश्री ने 'बारह वर्ष का उत्कृष्ट नियम सल्लेखना' का नियम बना लिया था। गजपंथ, लोणंद, फलटण, वालचंदनगर, बार्शी होते हुये महाराज श्री चातुर्मास के लिये कुंथलगिरि क्षेत्र पर आये । यहाँ पर चार माह के वास्तव्य में परिणामों की शांति तथा विशुद्धता विशेष वृद्धिंगत होती ही गई। दृष्टि-संपन्न साधु की ध्यान वस्तु 'एकमात्र शुद्ध होती है। ध्रुव होती है । चैतन्य धातुस्वरूप होती है। इसलिए उनकी आत्मा नित्य ही परिस्थिति-निरपेक्ष, निर्विकल्प सुखास्वाद करने में समर्थ होती है । बहिर्दृष्टि जीव साधु का आहार विहार उपदेश मात्र से प्रभावित होते हैं परंतु साधु का वास्तव जीवन शारीरिक, वाचिक कर्मकाण्ड से अत्यंत भिन्न तो होता ही है। परंतु परवस्तुसापेक्ष विकल्पों से भी अत्यंत परे होता है । " निष्कर्मशर्म पयमेमि दशांतरं सः' ऐसी ही शब्दातीत वास्तव अनुभूति में आचार्यश्री की आत्मा मग्न होती थी। अंतिम समाधि का स्थान निर्विकल्प होकर श्रीकुंथलगिरि क्षेत्र ही निश्चित हुआ।
चातुर्मास के अनन्तर कुछ दिन कुंथलगिरि क्षेत्र पर रह कर दक्षिण प्रांत में पुनः बिहार शुरू हुआ । जो इस पर्याय का अंतिम ही था। आचार्य श्री नान्द्रे, सांगली, शेडवाळ इत्यादि स्थानों में पहुंचे । हर जगह हजारों लोक उनके पुण्य दर्शन के लिये एकत्रित होते थे । छाया की तरह यशःकीर्ति नामकर्म प्रकृति भी अपना काम प्रामाणिकता से करती ही जाती थी।
शेडवाळ में पूर्वाश्रम के ज्येष्ठ भ्राता श्री वर्धमानसागर महाराज को अनेक साल के बाद आचार्यश्री का दर्शन होने से अपरिमित हर्ष हुआ। इसी समय शेडवाळ श्रीशांतिसागर अनाथाश्रम (रत्नत्रयपुरी) के भूतपूर्व महामंत्री श्री बाळगौंडा पाटील ने आचार्यश्री के पास भगवती दिगंबर मुनिदीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम 'आदिसागर' रक्खा गया। यहां कुछदिन तक वास्तव्य करने के पश्चात् फिर से बारामती की तरफ जाने का विचार था। परंतु प्रकृति की अपनी योजना में और एक काम होना बाकी था।
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