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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ में भी ठेस नहीं पहुंचानी चाहिये, सहिष्णुता का भाव होना ही चाहिए, इस प्रकार का संकेत संघस्थ सब को बराबर दिया गया था।
जातिलिंगविकल्पन येषांच समयाग्रहः ।
तेऽपि न प्राप्नुवंति परमं पदमात्मनः ॥ अर्थात जाति और वेष परिवेष का विकल्प साधना में पूरा बाधक एवं हेय होता है इसी प्रकार तेरह पंथ या वीसपंथ मे विकल्पों से आत्मसाधना अर्थात परमार्थभूत धर्मसाधना अत्यंत दूर होती है । धर्मदृष्टि के अभाव का ही परिणाम है । टंकोत्कीर्ण धर्मसाधना लुप्तप्राय होती जा रही और तेरह वीस के झगडे दृढमूल बनाए जा रहे हैं। और उन्हें धर्माचार का रूप दिया जा रहा है। समाज में आज भी जो भाई तेरह और वीस पंथ के नाम से समय समय पर वितंडा उपस्थित करते हैं और समाज के स्वास्थ्य को ठेस पहुंचाते हैं उनकी उस प्रवृत्ति को जो समाज के लिए महारोग के समान है, हम समझते आचार्यश्री का सामंजस्यपूर्ण दूरदृष्टिता का व्यवहार एक अद्भुत कल्याणकारी अमृतोपम रसायन हो सकता है ।
___इन तरेह वीस का आज तक कोई प्रामाणिक इतिहास भी उपलब्ध नहीं हो सका। इन विकल्पों से न समाज की कोई भलाई हो सकी न संस्कृति सुरक्षा के लिए सहाय्यता पहुँची। विकल्पों से विकल्प की ही उत्पत्ति होती है। एक धर्म, एक तत्त्व, के प्रचार और प्रसार के लिए अज्ञानमूलक ये पंथ भेद जरूर ही बाधक सिद्ध हुए हैं। इन आपसी झगडों ने तीर्थरक्षा में भी बाधा पहुंचायी है जिसका लाभ दूसरे स्वार्थियों ने उठाया है।
___नगरसेठ श्रीमान् चंपालालजी रानीवालों ने और उनके सुपुत्रों ने संघ का जो प्रबंध किया वह अपनी शान का उदारतापूर्ण अलौकिक ही था ।
शास्त्रशुद्ध व्यापक दृष्टिकोन महाराजजी का अपना दृष्टिकोन हर समस्या को सुलझाने के लिये मूल में व्यापकही रहता था । योगायोग की घटना है इसी चौमासे में कारंजा गुरुकुल आदि संस्थाओं के संस्थापक और अधिकारी पू. ब्र. देवचंदजी दर्शनार्थ ब्यावर पहुँचे । पू. आचार्यश्री ने क्षुल्लक दीक्षा के लिए पुनः प्रेरणा की। ब्रह्मचारीजी का स्वयं विकल्प था ही। वे तो उसी लिए ब्यावर पहुँचे थे। साथ में और एक प्रशस्त विकल्प था कि “यदि संस्थासंचालन होते हुए क्षुल्लक प्रतिमा का दान आचार्यश्री देने को तैयार हो तो हमारी लेने की तैयारी है।" इस प्रकार अपना हार्दिक आशय ब्रह्मचारीजी ने प्रगट किया । ५-६ दिन उपस्थित पंडितों में काफी बहस हुई। पंडितों का कहना था कि क्षुल्लक प्रतिमा के व्रतधारी संस्था संचालन नहीं कर सकते । आचार्यश्री का कहना था कि पूर्व में मुनिसंघ में ऐसे मुनि भी रहा करते थे जो जिम्मेवारी के साथ छात्रों का प्रबंध करते थे और ज्ञानदानादि देते थे। यह तो क्षुल्लक प्रतिमा के व्रत ग्रहस्थी के व्रत है। अंत में आचार्य महाराजजी ने शास्त्राधारों के आधार से अपना निर्णय सिद्ध किया।
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