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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ऐसी दुरवस्था हो गई। श्रीमान चंपतरायजी जैन बॅरिस्टर ने जैन लॉ का संकलन करके स. १९२६ इ. में इस पुस्तक को लंडन में प्रकाशित किया और भारत में वापिस लौटने के बाद 'जैन कानून' के नाम से स. १९२८ इ. में हिंदी में प्रकाशित किया।
'जैन लॉ' इस उद्देश से तय्यार किया गया कि जैन लॉ फिर स्वतंत्रतापूर्वक एक बार प्रकाश में आकर कार्य में परिणत हो सके, और जैन लोग अपने हि कानून के पाबंद रहकर अपने धर्म का समुचित पालन कर सके।
'जैन के ' मित्र संपादक श्री मूलचंदजी कापडिया ने इस हिंदी जैन कानून को पुनरपि स. १९६९ इ. में सुरत से प्रकाशित किया है ।
'जैन लॉ' की नीति (system) एक ऐसे दृष्टिकोन पर निर्भर है जिसमें किसी दूसरी रीतिक्रम (system) के प्रवेश कर देने से सामाजिक विचार और आचार की स्वतंत्रता का नाश हो जाता है और जैन धर्म के पालन में शिथिलता पैदा होती है।
जैन लॉ को, हिंदु लॉ या मुस्लिम लॉ को जो श्रेणी (Status) प्राप्त हुी है वैसी श्रेणी प्राप्त नहीं हो सकी।
जब कोई रीतिरिवाज (customs and usage) हिंदु लॉ से भिन्न होना जैन लोग बयान करें तो उसको साबित करने का उत्तरदायित्व जैनियों पर ही रखा जाता है। लेकिन यह बहुत कठिन काम हो गया है।
कानून के जाननेवाले जानते हैं कि किसी विशेष रिवाज को प्रमाणित करना बहुत प्रयत्नसाध्य कार्य है। सैंकडो साक्षी और उदाहरणों द्वारा इसको साबित करने की आवश्यकता होती है। जो छोटे मुकद्दमेवालों की हैसीयत के बाहर होता है ।
इतना कष्ट लेने के बाद भी, न्याय मिलेगा ऐसा विश्वास नहीं रहता ।
इस प्रकार और भी हानियां है । वे उसी समय दूर हो सकेंगी जब जैन लॉ पर अदालत में अमल होता रहेगा।
३. जैन धर्मप्रणालि और हिंदु धर्मप्रणालि में कुछ भिन्नताएँ (१) जगत् को (विश्व को) जैन अनादि मानते हैं; यह जगत् ईश्वर निर्मित है ऐसा हिंदु मानते हैं।
(२) जैन तीर्थंकरों की-[परमात्मा पद को प्राप्त होनेवाले महापुरुषों की] मूर्तियाँ मंदिरों में स्थापन करके जैन उनकी पूजा करते हैं। लेकिन हिंदु परंपरा से प्रयत्नसाध्य परमात्मपद की कल्पना नहीं है।
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