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पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत
२६९ चर्चा उमड पडी है और जिज्ञासुओं के मन में शंका है की दर्शनप्रतिमाधारी को केवल सम्यद्गर्शन निर्मल होना चाहिए, उसे बाजार का घी नहीं खाना मर्यादित वस्तु भक्षण करना कहा लिखा है ? परंतु सागारधर्मामृत का तीसरा अध्याय पढने से प्रथम प्रतिमाधारी को किस वस्तु का त्याग होना चाहिये यह स्पष्ट होता है। उन्होंने मूलगुणों के अतिचारों का जो वर्णन किया वह उनकी विशेषता ही कहना चाहिए। इस प्रकार वह बाजार का घी मुरब्बा अचार तथा चलित वस्तु नहीं खा सकता। यदि खाता है तो अष्टमूलगुणों में दोष लगते है और जिसे अष्ट मूलगुण निरतिचार नहीं वह दर्शनप्रतिमाधारी नहीं हो सकता।
श्रावक का पाक्षिक का भी आचार और दिनचर्या निरूपण करते समय उनका सामाजिक दृष्टिकोण कितना सर्वस्पर्शी और मूलगामी था इसका भी पता चलता है ।
प्रतिष्ठायात्रादिन्यतिकरशुभस्वैरचरण । स्फुरद्धर्मोद्धर्षप्रसररसपुरास्तरजसः । कथं स्युः सागारा श्रमणगणधर्माश्रमपदं । न यत्राहगृहं दलितकलिलीलाविलसितम् ॥
यहां श्रावक समाज के अंतर्मानस का कितना हृदयंगम दर्शन हुआ है। समाज में त्याग और त्यागियों के प्रति निष्ठा है। त्यागी साधुओं के विहार से धर्मभावना की परंपरा अविच्छिन्न चलती रहती है। इस कारण धर्म की परंपरा चालू रखने के लिए साधुओं की परंपरा भी अविच्छिन्न होना जरूरी है । इसलिए वे लिखते है
जिनधर्म जगद्वन्धुमनुबधुमपत्यवत् ।
यतीञ् जनयितुं यस्येत् तथोत्कर्षयितुं गुणैः ॥ अध्याय २ श्लोक ७१ विश्वबंधु जिनधर्म की परंपरा चालू रखने के लिए अपत्य की तरह साधुओं की निर्मिति के लिए और उनमें गुणों का उत्कर्ष होने के लिए प्रयास करना चाहिए । सामाजिक दृष्टिकोण की यह गहराई ! साधू परंपरा में भी कलि का प्रवेश होने से दोष का प्रादुर्भाव उन्हें दिखाई देता था । परंतु
विनस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव ।
भक्त्या पूर्वमुनीनचेत् कुतः श्रेयोऽतिचर्चिणाम् ॥ जिन प्रतिमा की तरह इस कालीन मुनीओं में पूर्व भावलिंगी साधू की स्थापना करके उनकी पूजा करनी चाहिए, क्यों की अतिचर्चा करनेवाले को कौनसी श्रेयोप्राप्ति होगी। श्रावक के जिनमंदीर, जिनचैत्य, पाठशाला, मठ आदि निर्माण करना क्यों जरूरी है इसका वर्णन इसका साक्षी है ।
आप संस्कृत भाषा के अधिकारी समर्थ विद्वान थे । आपकी टीका विद्वन्मान्य है आपके ग्रंथों में अन्य सुभाषित और उद्धरणों प्रचुरता से पाये जाते वैसे आपके श्लोकों में अनेक सुभाषित प्रचुरता से पाये जाते ।
इन सब विशेषताओं के कारण उनका सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृत दोनों ग्रंथ आज तक सर्वमान्य और प्रमाणभूत माने जाते और माने जायेंगे ।
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