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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
वृत्ति से अर्थ पुरुषार्थ के लिये प्रयत्न करे । उसके बाद घर में आकर मध्यान्ह संबन्धी पूजन करे तथा भोजन करने की तैयारी करते समय अपने लिये हुआ भोजन में से पहिले कुछ भोजन मुनियों को दूं- ऐसा विचार कर द्वारापेक्षण करे । अनन्तर पात्र लाभ होनेपर आहार देकर आश्रित और अनाश्रित जीवों के भरण पोषणपूर्वक स्वयं भोजन करे । भोजनोपरांत विश्राम लेकर तत्त्वज्ञान संबन्धी चर्चा करे । सायंकाल में वन्दनादि कर्म करके रात्रि में योग्यकाल में स्वल्प निद्रा ले । श्रावक की भोजन करते समय यह भावना होनी चाहिये कि मैं मुनि कब होलूँगा - और रात्रि में निद्रा भंग होने पर बारह भावनाओं का तथा वैराग्य भावनाओं का चितवन करे । तथा ऐसा विचार करे कि अहो मैंने अनादि काल से इस शरीर को ही आत्मा समझकर व्यर्थ संसार में परिभ्रमण किया । अब इस संसार का उच्छेद करने के लिये मैं प्रयत्न करता हूँ । रागद्वेष से कर्मबन्ध, कर्मबन्ध से शरीर, शरीर से इन्द्रिया, इन्द्रियों से विषयभोगो और विषय सेवन से पुनः कर्मबन्ध इस अनादि मोह चक्र का मैं अवश्य नाश करूँगा । जो कामवासना ज्ञानियों के सहवास और तपस्या से भी नहीं जीति जा सकती है—उस कामवासना पर विजय केवल भेद ज्ञान से ही प्राप्त हो सकती है । भेद विज्ञान के लिये जिन्हों ने राज्यपद का त्याग किया हैं वे ही मनुष्य धन्य हैं । इस गृहस्थाश्रम में फँसे हुये मुझे धिक्कार है । मेरे अन्तःकरण में स्त्री और वैराग्यरूपी स्त्री का द्वंद्व चल रहा है। उसमें न मालूम किस की जीत होगी । अहो इस समय इस स्त्री की ही जीत होगी क्योंकि यह मोह राजा की सेना है । यदि मैं स्त्री से विरक्त हो जायूँ तो परिगृह का त्याग बहुत सरल है । प्रतिक्षण आयु नष्ट हो रही है शरीर शिथिल हो रहा है इसलिये मैं इन दोनों में से किसी को भी अपने पुरुषार्थ सिद्धि में सहकारी नहीं मान सकता हूँ । विपत्तियों सहित भी जिन धर्मावलंबी होना अच्छा है । परन्तु जिन धर्म से रहित सम्पत्ति प्राप्त होना भी अच्छा नहीं है । मुझे वह सौभाग्य कब प्राप्त होगा जिस दिन मैं सम्पूर्ण संसार की वासनाओं का त्याग कर समता रस का पान करूँगा । वह शुभ दिन मुझे कब प्राप्त होगा जिस दिन मैं यति होकर समरस स्वादियों के मध्य बैठूंगा । अहो, मुझको वह निर्विकल्प ध्यान कब प्राप्त होगा कि मेरे शरीर को जंगली पशु काष्ठ समझकर अपने सरीर से खाज खुजायेगे । महा उपसर्ग सहन करनेवाले जिनदत्तादि श्रावकों को धन्य है जो घोरोपसर्ग होने पर भी अपने ध्यान से च्युत नहीं हुये । इस प्रकार दिनचर्या पालनेवाले श्रावक के कण्ठ में स्वर्गरूपी स्त्री मुक्तिरूपी स्त्री की ईर्षा से वरमाला डालती है ।
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सप्तमोऽध्याय
इस अध्याय में सामायिकादि नौ प्रतिमा के स्वरूप का वर्णन किया गया है । नौ प्रतिमा का स्वरूप तो सामान्य है परन्तु ग्यारहवीं प्रतिमा में कुछ विशेषता है ।
इस ग्रन्थ में ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक तथा ऐलक इस प्रकार दो भेद किए हैं। क्षुल्लक पीछ नहीं रखे तो भी चलता है तथा खंड वस्त्र धारण करता है, छुरा या कैंची से बाल निकलवा सकता है ।
क्षुल्लक के दो भेद भी हैं एक घर भिक्षा नियम एकघर भिक्षा नियंमवाला क्षुल्लक मुनियों के आहार लेने के
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तथा अनेक घर भिक्षा नियम ऐसे दो भेद हैं । अनन्तर आहार को निकलता है और अनेक
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