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जीवनपरिचय तथा कार्य की। परंतु पिताजी ने कहा, “ हमारे ये अंतिम दिन हैं दीक्षा लेकर हमारी मानसिक यातनाएँ बढ़ेगी सो ठीक नहीं होगा ! अच्छा नहीं होगा !" " हमारे जीवनी के पश्चात् ही आप अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सकते हो !" पिता की आज्ञा तथा पुत्र-कर्तव्य का विकल्प होने से सातगौंडा का दीक्षा लेने का विचार कुछ समय के लिए स्थगित हुआ ।
शक संवत् १८३३ इ. सन १९१२ में सातगौंडा की माताजी की इहलोक यात्रा समाप्त हुई । उसके कुछसाल पहले ही पिताजी का भी स्वर्गवास हुआ था। अब प्रकृतिसिद्ध त्यागमय जीवन और संयमशील बन गया । कोई लगाव भी न रहा। इसी काल में श्रवण बेलगोला-गोमटेश्वर इत्यादि पुण्यक्षेत्रों की दक्षिण यात्रा भी समाप्त कर सातगौंडा शक सं. १८३६ में भोजग्राम में आये ।
क्षुल्लक पदकी दीक्षा-स्वीकार सातगौंडाने जीवनी के इकतालीस साल पूर्ण होने के उपरांत दीक्षा लेने का दृढ निश्चय किया । उस समय कर्नाटक में दिगंबर स्वामी श्रीदेवेंद्रकीर्ति विहार कर रहे थे । 'कापशी' ग्राम के निकट — उत्तूर' नामक देहात है । वहाँ उनका आगमन होनेपर सातगौंडा मुनिश्री के समीप पहुँचे। और दिगंबर दीक्षा देने की प्रार्थना की, परंतु श्रीदेवेंद्रकीर्ति स्वामीजीने प्रारंभ में क्षुल्लक पदकी ही दिक्षा लेने को कहा। ठीक ही है 'क्रमारंभो हि सिद्धिकृत ' गुरु आज्ञा को प्रमाण माना। शक संवत् १८३७ इ. स. १९१८ में जेष्ठ शुक्ल त्रयोदशी तिथि को “ सातगौंडा" ने क्षुल्लक पद की दीक्षा धारण की। इस प्रकार स्वतंत्र संयमी जीवन का शुभ प्रारंभ हो गया।
उत्तर ग्राम छोटा था । इसलिये गुरु की आज्ञा लेकर क्षुल्लकजी महाराज चातुर्मास के लिये कागल आये । परंतु इसी काल में कोगनोली से कुछ नैष्ठिक श्रावक कागल पहुँचे। उन्होंने क्षुल्लकजी से प्रार्थना की कि, 'हमारे कोगनोली ग्राम में आपका पहला चातुर्मास हो।' उनकी प्रार्थना स्वीकार कर क्षुल्लकजी कोगनोली पहुँचे । इस प्रकार क्षुल्लकजी का प्रथम वर्षायोग धारण करने का प्रारंभ कोगनोली से हुआ। ध्यानधारणा तथा शांति अनुभवन के लिए कोगनोली का चौमासा अत्यंत अनुकूल रहा। आचार्यश्री के सहजोद्गार रहे कि 'कोगनोली आमचे आजोळ आहे' याने 'कोगनोली हमारी मां का गांव है' । ननिहाल है । ऐसाही परस्पर व्यवहार रहा ।
क्षुल्लकजी महाराज का चातुर्मास कोगनोली में अपूर्व धर्म प्रभावना के साथ संपन्न हुआ। दूसरा चातुर्मास कुंभोज में और तीसरा चातुर्मास फिरसे कोगनोली में हुआ । अनंतर क्षुल्लकजी महाराज ने कर्नाटक प्रांत में विहार शुरू किया। कोगनोली से जैनवाडी और वहां से बाहुबली क्षेत्र (कुंभोज ) में महाराजजी का आगमन हुआ। महाराजजी बाहुबली में आये यह वार्ता सुनकर आसपास के श्रावक गण भी बाहुबली आये। योगायोग से समडोली से कुछ श्रावकलोक इसी समय गिरनारजी की यात्रा के लिये जा रहे थे । उन्होंने महाराजजी से साथ में आने की प्रार्थना की। क्षुल्लकजी महाराज को वाहन में बैठने का त्याग नहीं था । यात्रियों के साथ साथ गिरनारजी यात्रा सानंद संपन्न हुई ।
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