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पुरुषार्थ सिद्धयुपाय : एक अध्ययन
२५३ परिग्रह प्रमाण व्रत का वर्णन (श्लोक १११ से १२८) तक आया है । यहाँ पर भी सूत्र रूप से महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोनों का अंकण है।
परिग्रह का लक्षण जो मूर्छा कहा वह मोहोदय निमित्तक ममत्व-परिणामरूप है। परिग्रहता की व्याप्ति मूर्छा के साथ है । बाह्य परिग्रह न होते हुए भी मूर्छाधीन परिग्रही है। ऐसा होने पर भी बाह्य वस्तू को मूर्छा की निमित्तता है ही। अकषायी जीवों को कर्म ग्रहण में मूर्छा संभव नहीं है । अभ्यंतर विभावरूप मिथ्यात्व वेदत्रय, हास्यादि छह विभाव और क्रोधादि चार कषाय इन चौदह को अंतरंग परिग्रह कहना जैन तत्त्वज्ञान की अपनी विशेषता है। बाह्य सचित्त और अचित्त पदार्थ मूर्छा के आधार या आयतन होने से उन्हें परिग्रह कहा है। मूर्छा-भाव हिंसा का ही पर्याय है। मूर्छा परिणाम की अधिकता होने से ही हिरण के बच्चे की अपेक्षा चूहे खानेवाली बिल्ली निस्संशय अधिकतर हिंसक है। अंतरंग परिग्रह त्याग के क्रम का उल्लेख करते हुए अनंतानुबंधी कषाय चतुष्टयों को ये सम्यग्दर्शन रत्न के चुरानेवाले चोर हैं यह कहकर मिथ्यात्व के साथ उनका परित्याग पहले होने की आवश्यकता बतलायी। असंयम और परिग्रह का निकट संबंध है। अशेष परिग्रह त्याज्य ही है। यदि वह औत्सर्गिक अवस्था बन नहीं पाती तो शक्ति के अनुसार उसे कम करना चाहिए कारण विशेष यह है कि तत्त्व याने आत्मतत्त्व का स्वरूप स्वयं परद्रव्य से सर्वतंत्र स्वतंत्र और निवृत्तिरूप है।
रात्रि-भोजन परित्याग को कहीं कहीं पर छट्टा अणुव्रत भी कहा है अतः उसका वर्णन क्रमप्राप्त ही है। रागभाव (आसक्ति की) की अधिरता रात्रि भोजन में भी निमित्त है । स्थूल सूक्ष्म जीवों की हिंसा रात्रिभोजन में सुतरां अवश्य होने से द्रव्यहिंसा भी सुनिहित है। नियमपूर्वक रात्रिभोजन-परिहार जैनीयों की कुलक्रमागत आचार विशेषता सेंकडो वर्षों से रही। वर्तमान की शिथिलता शोचनीय आचार पतन को सूचित करती है । जीवनी के लिए जीवन दृष्टि की कितनी आवश्यकता है इसको भी सूचित करती है।
सप्तशीलों के संदर्भ में प्रत्येक व्रतों का वर्णन करते समय अहिंसा का परिपोष कैसे संभव है इसको यथास्थान दिग्दर्शित किया है।
दिग्व्रत और देशव्रत में मर्यादा के बाहिर पापत्याग होने से महाव्रतित्व का आरोप व्रत के आत्माको स्पष्ट करता है । अनर्थ दण्ड के पांच ही भेदों का स्वरूप संक्षिप्त होते हुए भी मूल में देखने लायक है ।
शिक्षाव्रतों में सामायिक का अपना विशेष स्थान है। इष्टानिष्ट बुद्धि के परिहार को 'साम्य' कहते हुए सामायिक को आत्मतत्व प्राप्ति का मूल कारण बतलाया है। दिनान्त और निशान्त में तथा अन्य समय में भी वह करणीय है। कुछ समय मात्र के लिए क्यों न हो पाप मात्र का त्याग होने से उपरिचरित महाबतित्व का उल्लेख व्रत की गुरुता बतलाता है। प्रोषधोपवास में उसी साम्य भाव के संस्कारों का दृढीकरण होता है साथ में नव भंगोंसे अहिंसाव्रत का सोलह प्रहर तक के लिए विशेष परिपोष बतलाया है ।
भोगोपभोग परिमाण व्रत के लिए वस्तु तत्त्वका और अपनी शक्ति का परिज्ञान आवश्यक है । अनन्त कायिक वस्तु का परित्याग व्रतीयों को आवश्यक है। नवनीत जीवोत्पत्ति का योनीभूत होने से त्याज्य है । काल और वस्तु की मर्यादा से संतोष और संतोष से हिंसा त्याग स्वयं सधता है।
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