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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ जिस प्रकार निर्लेप नग्नत्व (दिगम्बरत्व) मौन भाव से मुक्तिमार्ग को बतलाता है इसलिए हम उसे मंगल-लोकोत्तम और शरण के रूप में विना किसी विकल्प के स्वीकार कर लेते हैं; उसी प्रकार शुद्ध पुरुष का शुद्ध परिणाम रूप कार्य उसको अनुपचरित रूपसे कहनेवाला निश्चयनय-उसकी भूतार्थता व्यवहार की निमिताधीनता उसकी अभूतार्थता आदि को अभ्रांतरूप में स्पष्ट स्पष्ट नग्न सत्य कहनेवाले श्लोकों का महत्त्वपूर्ण आशय मंगल है, लोकोत्तम है और शरण भी है उसे यथार्थरूपसे स्वीकार कर लेनेपरहि ग्रन्थान्तर्गत सारा वर्णन सजग सचेतन हो जाता है। रत्नत्रयात्मक मार्ग के पथिक मुनीश्वरों का आचार एकान्तविरतिरूप 'औत्सर्गिक' होता है; और पदानुसारी उपासकों की वृत्ति एकदेश विरतिरूप होते हुए भी आत्माभिमुख दृष्टि होने से तथा रत्नत्रय के बीज उसमें विहित होने से श्रावकाचार मोक्षमार्ग को बतलानेवाला होता है इसीलिए वह कयनीय है । इस सत् आशय को लेकर ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण पीठिका समाप्त होती है।
श्रावकधर्म व्याख्यान ( श्लोक २०-३०) मोक्षमार्ग रत्नत्रयात्मक है । यथाशक्ति आराधना उपादेय है। सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन अनिवार्य है उसके होनेपर हे ज्ञान और चारित्र यथार्थ होते हैं। जीवाजीवादि तत्त्वार्थों का निरंतर श्रद्धान करना चाहिये । यह श्रद्धान विपरीत श्रद्धान विरहित आत्मस्वरूप हि है । पृथग्मूल वस्तु नहीं है यद्यपि सम्यग्दर्शन के आठ अंग वे ही कहे जो रत्नकरणादि ग्रंथों में वर्णित हैं फिर भी उनका लक्षण विशिष्ट दृष्टिसहित है, ( निश्चय और व्यवहाररूप ) निरूपित है।
१ निःशंकितः--सर्वज्ञकथित वस्तु समूह अनेकान्तात्मक है क्या वह सत्य है या असत्य ऐसे विकल्पों का न होना।
__२ निष्कांक्षितः--इह परलोक में बडप्पन की और पर समय की (एकान्त तत्त्व की ) अभिलाषा न करना।
__ ३ निर्विचिकित्साः-अनिष्ट क्षुधा तृषा आदि भावों में तथा मलमूत्रादि के संपर्क होने पर ग्लानि नहीं करना।
___४ अमूढ दृष्टिः-तत्त्वरुचि रखना। लोक व्यवहार में मिथ्याशास्त्रों में, मिथ्यातत्त्वों में-मिथ्या देवताओं में अयथार्थ ( मिथ्या ) श्रद्धा नहीं करना।
५ उपगृहन (उपबृंहण ):-मार्दवादि भावों से आत्म गुणों का विकास करना और अन्योंके दोषोंका आविष्कार नहीं करना।
६ स्थितिकरण :--कामक्रोधादि के कारण न्याय मार्ग से विचलित होने पर युक्तिपूर्वक स्वयं को और पर को स्थिर करना।
७ वात्सल्यः-मोक्ष कारण अहिंसा में और साधर्मी बंधुओं में वात्सल्य भाव रखना।
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