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जैन ज्योतिष साहित्य का सर्वेक्षण
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हानि, रोग, मृत्यु, भोजन, शयन, शकुन, जन्म, कर्म, अस्त्र, शल्य, वृष्टि, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सिद्धि, असिद्धि आदि विषयों का प्ररूपण किया गया है । इस ग्रन्थ में अ च ट त प य श अथवा आ एक चट पयश इन अक्षरों का प्रथम वर्ग, आ ऐ ख छ ठ थ फर ष इन अक्षरों का द्वितीय वर्ग, इ ओ ग ज ड द ब ल स इन अक्षरों का तृतीय वर्ग, ई औ घ झ भ व ह न अक्षरों का चतुर्थ वर्ग और उ ऊ ण न भ अं अः इन अक्षरों का पंचम वर्ग बताया गया है । प्रश्नकर्ता के वाक्य या प्रश्नाक्षरों को ग्रहण कर संयुक्त, असंयुक्त अभिहित और अभिघातित इन पांचों द्वारा तथा आलिंगित अभिघूमित और दग्ध इन तीनों क्रियाविशेषणों द्वारा प्रश्नों के फलाफल का विचार किया गया है । इस ग्रन्थ में मूक प्रश्नों के उत्तर भी निकाले गये हैं । यह प्रश्नशास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है ।
हेमप्रभ - इनके गुरु का नाम देवेन्द्रसूरि था । इनका समय चौदहवीं शती का प्रथम पाद है । संवत १३०५ में त्रैलोक्यप्रकाश रचना की गयी है । इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं - त्रैलोक्यप्रकाश और मेघमाला ।'
त्रैलोक्यप्रकाश बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें १९६० श्लोक हैं । इस एक ग्रन्थ के अध्ययन से फलित ज्योतिष की अच्छी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। आरंभ में ११० श्लोकों में लग्नज्ञान का निरूपण है । इस प्रकरण में भावों के स्वामी, ग्रहों के छः प्रकार के बल, दृष्टिविचार, शत्रु, मित्र,वक्री मार्गी, उच्च-नीच, भावों की संज्ञाएँ, भावराशि, ग्रहबल विचार आदि का विवेचन किया गया है । द्वितीय, प्रकरण में योगविशेष— धनी, सुखी, दरिद्र, राज्यप्राप्ति, सन्तानप्राप्ति, विद्याप्राप्ति, आदि का कथन है । तृतीय प्रकरण, में निधिप्राप्ति घर या जमीन के भीतर रखे गये धन और उस धन को निकालने
विधि का विवेचन है । यह प्रकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इतने सरल और सीधे ढंग से इस विषय का निरूपण अन्यत्र नहीं है । चतुर्थ प्रकरण भोजन और पंचम ग्राम पृच्छा है । इन दोनों प्रकरणों में नाम के अनुसार विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न प्रकार के योगों का प्रतिपादन किया गया है । षष्ठ पुत्र प्रकरण है, इसमें सन्तान प्राप्ति का समय, सन्तान संख्या, पुत्र-पुत्रियों की प्राप्ति आदि का कथन है । सप्तम प्रकारण में छठे भाव से विभिन्न प्रकार के रोगों का विवेचन, अष्टम में सप्तम भाव से दाम्पत्य संबंध और नवम में विभिन्न दृष्टियों से स्त्री-सुख का विचार किया गया है। दशम प्रकरण में स्त्रीजातक - स्त्रियों की दृष्टि से फलाफल का निरूपण किया गया है। एकादश में परचक्रगमन, द्वादश में गमनागमन, त्रयोदश में युद्ध, चतुर्दश में सन्धिविग्रह, पंचदश में वृक्षज्ञान, षोडश में ग्रह दोष -ग्रह पीड़ा, सप्तदश में आयु, अष्टादश में प्रवहण और एकोनविंश में प्रवज्या का विवेचन किया है । बीसवें प्रकरण में राज्य या पदप्राप्ति, इक्कीसवें में वृष्टि, बाईसवें में अर्धकाण्ड, तेईसवें में स्त्रीलाभ, चौबीसवें में नष्ट वस्तु की प्राप्ति एवं पच्चीसवें में ग्रहों के उदयास्त, सुभिक्ष- दुर्भिक्ष, महर्घ, समर्थ, और विभिन्न प्रकार से तेजी - मन्दी की जानकारी बतलाई गयी है । इस ग्रंथ की प्रशंसा स्वयं ही इन्होंने की है।
१. जैन ग्रन्थावली, पृ. ३५६.
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२. त्रैलोक्यप्रकाश, श्लो. ४३०.
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