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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
अट्ठासी महाग्रह हैं । प्रश्न - व्याकरण में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु या धूमकेतु इन नौ ग्रहों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है।
समवायांग में ग्रहण के कारणों का भी विवेचन मिलता है।' इस में राहु के दो भेद बतलाये गये हैं - निराहु और पर्वहु । नित्यराहु को कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष का कारण तथा पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का कारण माना है । केतु, जिसका ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदण्ड से ऊँचा है, भ्रमणवश वही केतु सूर्यग्रहण का कारण होता है ।
दिन वृद्धि और दिन
के सम्बन्ध में भी समवायांग में विचार-विनिमय किया गया है । सूर्य जब दक्षिणायन में निषध - पर्वत के आभ्यंतर मण्डल से निकलता हुआ ४४ वें मण्डल - गमन मार्ग में आता है, उस समय मुहूर्त दिन कम होकर रात बढती है - इस समय २४ घटी का दिन और ३६ घटी की रात होती है । उत्तरदिशा में ४४ वें मंडल - गमन मार्ग पर जब सूर्य आता है, तब बढने लगता है । और इस प्रकार जब सूर्य ९३ वें मंडल पर पहुँचता है, तो दिन परमाधिक होता है । यह स्थिति आषाढी पूर्णिमा को आती है । "
इस प्रकार जैन आगम ग्रंथों में ऋतु, अयन, दिनमान, दिनवृद्धि, दिनहास, नक्षत्रमान, नक्षत्रों की विविध संज्ञाएँ, ग्रहों के मण्डल, विमानों के स्वरूप और विस्तार ग्रहों की आकृतियों आदि का फुटकर रूप में वर्णन मिलता है । यद्यपि आगम ग्रंथों का संग्रह काल ई. सन की आरंभिक शताब्दी या उसके पश्चात् ही विद्वान् मानते हैं, किन्तु ज्योतिष की उपर्युक्त चर्चाएँ पर्याप्त प्राचीन हैं । इन्हीं मौलिक मान्यताओं के आधार पर जैन ज्योतिष के सिद्धान्तों को ग्रीकपूर्व सिद्ध किया गया है।
ऐतिहासज्ञ विद्वान् गणित ज्योतिष से भी फलित को प्राचीन मानते हैं अतः अपने कार्यों की सिद्धि के लिये समयशुद्धि की आवश्यकता आदिम मानव को भी रही होगी। इसी कारण जैन आगम ग्रन्थों में फलित ज्योतिष के बीज तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार, समयशुद्धि, दिनशुद्धि आदि की चर्चाएँ विद्यमान हैं ।
जैन ज्योतिष - साहित्य का सांगोपांग परिचय प्राप्त करने के लिये इसे निम्न चार कालखण्डों में विभाजित कर हृदयंगम करने में सरलता होगी ।
आदिकालपूर्व मध्य काल -
उत्तर मध्यकाल ---
अर्वाचीन काल
से
ई. पू. ३०० ६०१ १००१ ई. से
ई. से
१६०१
ई. से
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६०० ई.
ई.
ई.
ई.
मुहूर्त दिन ३६ घटी का
१०००
१६००
१८६०
तक ।
तक ।
तक ।
तक ।
१. समवायांग, स. १५.३.
२. बहिराओं उत्तराओणं कट्ठाओ सूरिए पटमं छम्मासं अयमाणे चोयालिस इमे मंडलगते अट्ठासीति एगसीट्ठ भागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्त्स निवुट्ठेत्ता एयणीखेत्तस्स अभिनिवुड्ठेत्ता सूरिए चारं चरइ. । - स. ८८.४. ३. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रीकपूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा शीर्षक निबन्ध, पृ. ४६२.
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