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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ तिर्यंचगति से नहीं निकल सकते-आयु के समाप्त होने पर पुनरपि तिर्यंचगति में ही वे रहते हैं । पृथिवीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, विकलत्रय और असंज्ञी इनका मनुष्य और तिर्यंचों में परस्पर उत्पन्न होना विरुद्ध नहीं है-ये मरकर मनुष्य और तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। नारकी और देवों का परस्पर में उत्पन्न होना विरुद्ध है-नारकी देव नहीं हो सकता और देव नारकी नहीं हो सकता। बादर पृथिवीकायिक, अप्कायिक और प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक इनमें तिर्यंच और मनुष्यों का जन्म लेना सम्भव है। सब तेजकायिक और सब वायुकायिक जीव अगले भव में मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते । पर्याप्त असंज्ञी तिर्यंचों का जन्म नारकी, देव, तिर्यंच और मनुष्यों में हो सकता है, परन्तु उनकी सभी अवस्थाओं में उनका जन्म लेना सम्भव नहीं है। अभिप्राय यह कि वे प्रथम पृथिवी के नारकियों में तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवों में ही उत्पन्न हो सकते हैं—अन्य नारकी और देवों में नहीं । इसी प्रकार भोगभूमिजों और पुण्यशाली मनुष्य-तिपंचों को छोडकर शेष मनुष्यों व तिर्यंचों में ही उत्पन्न हो सकते हैं ।
___ असंख्यात वर्ष की आयुवाले ( भोगभूमिज ) मनुष्य और तिर्यंचों का जन्म संख्यात वर्ष की आयुवाले (कर्मभूमिज ) संज्ञी मनुष्य और तिर्यंचों में से ही होता है । उक्त असंख्यात वर्ष की आयुवाले सभी भोगभूमिजों का संक्रमण स्वाभाविक मन्दकषायता के कारण देवों में ही होता है । तिर्यंच और मनुष्य अनन्तर भव में शलाका पुरुष नहीं होते, परन्तु मुक्ति कदाचित् वे प्राप्त कर सकते हैं। संज्ञी अथवा असंज्ञी मिथ्यादृष्टी जीव व्यन्तर और भवनवासी हो सकते हैं। असंख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य और तिर्यंच मिथ्यादृष्टी तथा उत्कृष्ट तापस ये ज्योतिषीदेव तक हो सकते हैं । इसी प्रकार से आगे देवों की आगति
और गतिका भी निरूपण किया गया है । इस क्रमसे यहां जीवों की गति-आगति की प्ररूपणा विस्तार से (१४६-७५) की गई है, जिसका आधार सम्भवतः मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार रहा है।'
आगे जीवों के निवासस्थान की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि जीवों का क्षेत्र लोक है जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, कालाणुओं और पुद्गलों से व्याप्त होकर आकाश के मध्य में अवस्थित है। उसका आकार नीचे बेतके आसन के समान, मध्य में झालर के समान और ऊपर मृदंग के समान है। यद्यपि सामान्यरूप से सभी लोक तिर्यंचों का क्षेत्र है, फिर भी नारकी, मनुष्य और देवों में उसका विभाग किया गया है। अधोलोक में रत्नप्रभा आदि जो सात पृथिवियां हैं उनमें नारकियों के बिल हैं, जिनमें वे निरन्तर अनेक प्रकार के दुःखों को सहते हुए रहते हैं। यहां उनके इन बिलों की संख्या और दुःख के कारणों का भी निर्देश किया गया है।
१. मूलाचार के पर्याप्ति अधिकार (१२) की निम्न गाथाओं से क्रमशः तत्त्वार्थसार के निम्न श्लोकों का मिलान
कीजिए । इनमें अधिकांश प्राकृत गाथाओं का संस्कृत में रूपान्तर जैसा प्रतीत होता हैमूला.–११२-१३, ११४-१५, ११६-१८, ११९-२०, १२३, १२५. त. सा.–१४६-१४७, १४८, १४९-५१, १५२, १५४, १५६. मूला.-१२४, १२६-३२, १३३-४०, १४१-१४२. त. सा. १५७, १५८-६४, १६६-७३, १७४-७५.
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