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चन्द्रप्रभचरितम् : एक परिशीलन
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ओज, प्रसाद तथा माधुर्यगुण, विविध छन्दों ( कुल मिलाकर इकतीस ) और अलङ्कारों की योजना, रस का अविच्छिन्न प्रवाह, प्राञ्जल संस्कृत, महाकाव्योचित प्रासङ्गिक वर्णन और मानवोचित शिक्षा आदि की दृष्टि से प्रस्तुत कृति अत्यन्त श्लाघ्य है ।
प्रस्तुत कृति में वीरनन्दि की साहित्यिक, दार्शनिक और सैद्धान्तिक विद्वत्ता की त्रिवेणी प्रवाहित है । साहित्यिक वेणी ( धारा ) अथ से इति तक अविच्छिन्न गति से बही है । दार्शनिक धारा का सङ्गम दूसरे सर्ग में हुआ है, और सैद्धान्तिक धारा सरस्वती की भांति कहीं दृश्य तो कहीं अदृश्य होकर भी अन्तिम सर्ग में विशिष्ट रूप धारण करती है । पर कवि की अप्रतिम प्रतिभा ने साहित्यिक धारा को कहीं पर भी क्षीण नहीं होने दिया । फलतः दार्शनिक और सैद्धान्तिक धाराओं में भी पूर्ण सरसता अनुस्यूत है ।
अश्वघोष और उनके उत्तरवर्ती कालिदास की भांति वीरनन्दि को अर्थचित्र से अनुरक्ति है । यों इन तीनों महाकवियों की कृतियों में शब्दचित्र के भी दर्शन होते हैं, पर भारवि और माघ की कृतियों की भांति नहीं, जिनमें शब्दचित्र आवश्यकता की सीमा से बाहर चले गये हैं ।
चं. च. में वर्णित चन्द्रप्रभ का जीवनवृत्त अतीत और वर्तमान की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । प्रारम्भ के पन्द्रह सर्गों में अतीत का और अन्तके तीन सर्गों में वर्तमान का वर्णन है । इसलिए अतीत के वर्णन से वर्तमान का वर्णन कुछ दब-सा गया है । चन्द्रप्रभ की प्रधान पत्नी का नाम कमलप्रभा है । नायिका होने नाते इनका विस्तृत वर्णन होना चाहिए था, पर केवल एक (१७. ६०) पद्य में ही इनके नाम मात्र का उल्लेख किया गया है। इसी तरह इनके पुत्र वरचन्द्र की भी केवल एक (१७. ७४ ) पद्य में ही नाम मात्र की चर्चा की गयी है । दोनों के प्रति बरती गयी यह उपेक्षा खटकने वाली है । दूसरे सर्ग में की गयी दार्शनिक चर्चा अधिक लम्बी है । इसके कारण कथा का प्रवाह कुछ अवरुद्ध-सा हो गया है। इतना होते हुए भी कवित्व की दृष्टि से प्रस्तुत महाकाव्य प्रशंसनीय है क्लिष्टता और दूरान्त्रय के न होने से इसके पद्य पढते ही समझ में आ जाते हैं। इसकी सरलता रघुवंश और बुद्धचरित से भी कहीं अधिक है ।
संस्कृत व्याख्या और पञ्जिका - विक्रम की ११ वीं शती के प्रारम्भ में काव्य पर मुनिचन्द्र (वि. सं. १५६० ) की संस्कृत व्याख्या और गुणनन्दि (वि. सं. उपलब्ध हैं। पं. जयचन्द्र छावड़ाने ( जन्म वि. सं. १७९५ ) इसके दूसरे सर्ग के पुरानी हिन्दी में वचनिका लिखी थी, जो उललब्ध है ।
इस तरह प्रस्तुत महाकाव्य के विषय में संक्षिप्त परिशीलन प्रस्तुत किया गया है ।
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निर्मित प्रस्तुत महा१५९७ ) की पञ्जिका ६८ दार्शनिक पद्यों पर
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