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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
विवाह संस्कार - वयस्क होते ही राजा महासेन उनका विवाहसंस्कार' करते हैं, जिसमें सभी राजे महाराजे सम्मिलित होते हैं ।
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राज्यसंचालन - पिताजी के आग्रह पर चन्द्रप्रभ राज्य का संचालन स्वीकार करते हैं । इनके राज्य में प्रजा सुखी रही, किसीका अकाल मरण नहीं हुआ, प्राकृतिक प्रकोप नहीं हुआ तथा स्वचक्र या परचक्र से कभी कोई बाधा नहीं हुई । दिन रात के समय को आठ भागों में विभक्त करके वे दिनचर्या के अनुसार चल कर समस्त प्रजा को नयमार्ग पर चलने की शिक्षा देते रहे । विरोधी राजे-महाराजे भी उपहार ले-लेकर उनके पास आते और उन्हें नम्रता पूर्वक प्रणाम करते रहे । इन्द्र के आदेश पर अनेक देबाङ्गनाएँ प्रतिदिन उनके निकट गीत नृत्य करती रहीं । अपनी कमला आदि अनेक पत्नियों के साथ वे चिरकाल तक आनन्दपूर्वक रहे ।
वैराग्य - किसी दिन एक वृद्ध लाठी टेकता हुआ उनकी सभा में जाकर दर्दनाक शब्दों में कहता है-' भगवन्, एक निमित्त ज्ञानी ने मुझे मृत्यु की सूचना दी है । मेरी रक्षा कीजिए, आप मृत्युञ्जय हैं, अतः इस कार्य में सक्षम हैं' । इतना कह कर वह अदृश्य हो जाता है । चन्द्रप्रभ समझ जाते हैं कि वृद्ध वेष में देव आया था, जिसका नाम था धर्मरुचि इसी निमित्त से वे विरक्त हो जाते हैं" इतने में ही कान्तिकदेव आ जाते हैं, और 'साधु ' ' साधु' कह कर उनके वैराग्य की प्रशंसा करते हैं । तदनंतर शीघ्र दीक्षा लेने का निश्चय करते हैं, और अपने पुत्र वरचन्द्र को अपना राज्य सौंप देते हैं ।
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तप-तत्पश्चात् इन्द्र और देव चन्द्रप्रभ को ' त्रिमला ' नामकी शिबिका में बैठाकर सफल ले जाते हैं, जहाँ वे [ पौष कृष्णा एकादशी के दिन ] दो उपवासों का नियम लेकर सिद्धों को नमन
१. उ. पु. (५४. २१४) में और पुराणसा. ( ८६.५७ ) में क्रमशः, निष्क्रमण के अवसर पर अपने पुत्र वरचन्द्र व रवितेज को चन्द्रप्रभ के द्वारा उत्तराधिकार सौंपने का उल्लेख है, पर दोनों में ऐसे श्लोक दृष्टिगोचर नहीं होते, जिनमें उनके विवाह की स्पष्ट चर्चा हो । चं. च. ( १७.६० ) में चन्द्रप्रभ की अनेक पत्नियों का उल्लेख है जो त्रिषष्टिशलाका पु. ( २९८.५५ ) में भी पाया जाता है ।
२. चन्द्रप्रभ के वैराग्य का कारण तिलोयप. (४.६१०) में अध्रुव वस्तु का और उ. पु. ( ५४.२०३ ) तथा षष्टिस्मृति (२८.९ ) में दर्पण में मुख की विकृति का अवलोकन लिखा है । त्रिषष्टिशलाका पु. एवं पुराणखा. में वैराग्य के कारण का उल्लेख नहीं है ।
३. हरिवंश ( ७२२.२२२ ) में शिबिका नाम 'मनोहरा', त्रिषष्टिशलाका पु. ( २९८.६१ ) में ' मनोरमा और पुराण सा. ( ८६.५८ ) में 'सुविशाला ' लिखा है । तिलोयप. (४,६५१ ) में वन का नाम ' सर्वार्थि ' उ. पु. (५४.२१६) में 'सवर्तुक' त्रिषष्टिशला कापु. ( २९८.६२ ) एवं पुराणसा. ( ८६.५८) में ( 'सहस्राम्र' लिखा है ।
४. चं. च. में मिति नहीं दी, अतः हरिवंश ( ७२३.२३३ ) के आधार पर यह मिति दी गई है । उ. पु. ( ५४.२१६ ) में भी यही मिति है, पर कृष्ण पक्ष का उल्लेख नहीं है । त्रिषष्टिशलाका पु. ( २९८.६४) में पौष कृष्णा त्रयोदशी मिति दी है। पुराणसा. ( ८६.६०) में केवल अनुराधा नक्षत्र का ही उल्लेख है ।
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