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परमात्म-प्रकाश और उसके रचयिता कवि ने अपने को 'जोइन्दु' या 'जोगचन्द (जोगिचन्द ) ही कहा है। यह परमात्म-प्रकाश और योगसार में प्रयुक्त नामों से स्पष्ट है। 'इन्दु' और 'चन्द्र' पर्यायवाची शब्द है। व्यक्तिवाची संज्ञा के पर्यायवाची प्रयोग भारतीय काव्य में पाये जाते हैं । डॉ. ए. एन्. उपाध्ये ने भागेन्दु (भागचन्द) शुभेन्दु (शुभचन्द ) आदि उद्धरण देकर इस लक्ष्य की पुष्टि की है। श्री ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में 'जोइन्दु' का संस्कृत रूपान्तर 'योगीन्द्र' कर दिया है। इसी आधार पर परवर्ती टीकाकारों और लिपिकारों ने 'योगीन्द्र ' शब्द को मान्यता दी किन्तु यह प्रयोग अशुद्ध है। कवि का वास्तविक नाम 'जोइन्दु' 'योगीन्दु' ही है।
ग्रन्थ का निर्माणकाल नामकरण के समान उनके कालनिर्णय पर भी मतभेद है। विद्वानों ने उनको ईसा की छटी शताब्दि से लेकर बारवीं शताब्दि तक अनुमानित किया है हिन्दि साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् आ. हजारीलाल जी द्विवेदी आपको आठवी नवीं शताब्दि का मानते हैं। श्री. मधुसूदन मोदी दसवीं शती तथा उदयसिंह भटनागर ने खोज कर लिखा है 'प्रसिद्ध जैन साधु जोइन्दु, जो महान् विद्वान, वैयाकरण और कवि था, संभवतः चितौड का ही निवासी था इसका समय दशमी शती था । हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध इतिहास भाग १ में आपको ग्यारहवीं शती से पूर्व का माना है। डॉ. कामताप्रसाद जैन आपको बारहवीं शताब्दि का पुरानी हिन्दी का कवि मानते हैं । श्री. ए. एन् . उपाध्याय ने उक्त तर्कों का खंडन करते हुए योगीन्दु को छटी शताब्दि का प्रमाणित किया है। इन मतभेदों के कारण अभी तक सुनिश्चित समय का निर्णय नहीं हो पाया है।
हजारीप्रसाद जी द्विवेदी का मत यह है की इस शताब्दि के योगियों की भाषा और भाव से जोइन्दु की भाषा और भाव मिलते जुलते हैं। इस शताब्दि में ही बाह्याचार का विरोध, आत्मशुद्धि पर बल शरीरादि से ममत्व के त्याग, तथा स्वसंवेदन के आनंद के उपभोग की प्रतिष्ठा रही है। किन्तु वे विद्वान जैन साहित्य के इतिहास को उठाकर देखें तो जैनधर्म ने हमेशा आत्म प्रतिष्ठा पर बल दिया है । और प्रत्येक शताब्दि में ऐसे अनेक जैन संत होते रहे हैं, जिन्होंने अध्यात्म का विशेष प्रचार एवं प्रसार किया है।
राहुलजी ने आपको आठमी शती का माना है। वे योगीन्दु की मृत्यु तिथि भी सन ७८० मानते हैं। आठवी शताब्दि के प्रारंभ में एक तरह से सभी धर्मों में आध्यात्मिक क्रान्ति हुई थी, जिसमें आत्मा और परमात्मा के विषय में विशेष अन्वेषण एवं विचार विनिमय हुआ है । राहुलजी के उक्त कथन से यही ध्वनि निकलती है कि योगीन्दु मुनि आठवीं शती से पूर्व के नहीं है ।
भाषा की दृष्टि से भी विचार करनेपर परमात्मा प्रकाश का रचनाकाल आठवीं शती ही ठहरता है। इस ग्रंथ की भाषा अपभ्रंश है । अपभ्रंश भाषा एक परिष्कृत साहित्यिक भाषा के रूप में कब आई ? इसपर भी विद्वानों में मतभेद है। वैसे अपभ्रंश शब्द काफी प्राचीन है किन्तु भाषा के रूप में इसका प्रयोग छटी शताब्दि से पूर्व नहीं मिलता। (हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृ. ६-डॉ. नामवरसिंह ।)
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