________________
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ विना ज्ञान के कुलक्रमागत केवल बाह्य देखादेखी देव-गुरु भक्ति भी अल्प फल देनेवाली होती है । विशेष कार्यकारी नहीं है । ज्ञान के विना उदासीन वृत्ति- त्याग-संयमवृत्ति केवल पुण्यफल को देने वाली होती है । उससे मोक्ष कार्य की सिद्धि नहीं होती । महामुनी, संयमी जनों के ध्यान व अध्ययन ये दो ही मुख्य कार्य कहे गये हैं । इसलिये इस शास्त्र का अध्ययन कर जीव-कर्म का स्वरूप समझ कर अपने आत्म स्वरूप का ध्यान करना चाहिये ।
प्रश्न- यहां शिष्य प्रश्न पूछता है कि कोई जीव बहुत शास्त्रोंका अध्ययन तो करते हैं, लेकिन वे विषयादिकों से उदासीन-त्याग वृत्ति धारण करनेवाले नहीं होते है। उनका शास्त्र का अध्ययन कार्यकारी है कि नहीं?
१ यदि है, तो संत-महंत पुरुष विषयादिकों का त्याग कर क्यों व्यर्थ कायक्लेशादि तप करते हैं ? २ यदि नहीं, तो ज्ञानाभ्यास का महिमा क्या रहा ? समाधान-शास्त्राभ्यासी दो प्रकार के पाये जाते हैं। १ लोभार्थी २ धर्मार्थी
१ अंतरंग धर्मानुराग बिना जो केवल ख्याति-पूजा-लाभ के लिये शास्त्राभ्यास करते है उनका शास्त्राभ्यास कार्यकारी नही है । वे लोभार्थी आत्मघाती महापापी है।
२ जो अंतरंग धर्मानुरागपूर्वक आत्महित के लिये शास्त्राभ्यास करते हैं, वे योग्य काललब्धि पूर्वक विषयादिकों का त्याग अवश्य करते ही हैं । उनका ज्ञानाभ्यास कार्यकारी ही है । जो कदाचित् पूर्व कर्मोदय वश विषयादिकों का त्याग करने में असमर्थ है तथापि वे अपने असंयमवृत्ति की सदैव आत्मनिंदा गर्दा करते हैं । संयम और त्याग का नितांत आदर करते हैं उनका ज्ञानाभ्यास भी कार्यकारी ही है। असंयत गुणस्थान में विषयादिक का त्याग न होते हुये भी सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान पूर्वक (स्वरूपाचरण चारित्ररूप) स्वरूप स्वभाव का निरंतर भान ( लक्ष्य ) होने से मोक्षमार्गपना नियम से पाया जाता है।
प्रश्न-जो धर्मार्थी है, शास्त्राभ्यासी है, उसको विषयादिकों का त्याग होता नहीं यह कैसे संभव है ? क्यों कि विषयों का सेवन तो जीव विषयों के अनुराग परिणामपूर्वक ही करता है। अपने परिणाम तो अपने स्वाधीन है ?
समाधान-परिणाम दो प्रकार के होते है। १. बुद्धिपूर्वक, २. अबुद्धिपूर्वक । १. अपने अभिप्रायपूर्वक-विषयानुरागपूर्वक जो परिणाम होते हैं वे बुद्धिपूर्वक परिणाम हैं । २. जो विना अभिप्राय के पूर्वकर्मोदयवश होते हैं उनको अबुद्धिपूर्वक परिणाम कहते हैं ।
जैसे सामायिक करते समय धर्मात्मा के जो शुभ परिणाम होते है वे तो बुद्धिपूर्वक है और उसी समय विना इच्छा के जो स्वयमेव अशुभ परिणाम होते है वे अबुद्धिपूर्वक है। उसी प्रकार जो ज्ञानाभ्यासी है उसका अभिप्राय तो विषयादिक का त्यागरूप-वीतरागभावरूप ही होता है वह तो बुद्धिपूर्वक है। और चारित्रमोह के उदयते जो सराग प्रवृत्ति होती है वह अबुद्धिपूर्वक है । अभिप्रायविना कर्मोदयवश जो सराग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org