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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ __ वृद्धि-पदनिक्षेपविशेष को वृद्धि कहते हैं। इसमें स्थितिबन्ध सम्बन्धी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन पदों द्वारा समुत्कीर्तना आदि १३ अनुयोग द्वारों का आलम्बन लेकर ज्ञानावरणादि कर्मों की स्थितिबन्ध का विचार किया गया है ।
९. अध्यवसान बन्ध प्ररूपणा इसमें मुख्यतया तीन अनुयोग द्वार हैं—प्रकृति समुदाहार, स्थिति समुदाहार, और जीव समुदाहार ।
प्रकृति समुदाहार में किस कर्म की कितनी प्रकृतियाँ है इसका निर्देश करने के बाद उनका अल्पबहुत्व बतलाया गया है ।
स्थिति समुदाहार में प्रमाणानुगम, श्रेणि प्ररूपणा और अनुकृष्टि प्ररूपणा इन तीन अधिकारों के द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मों की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थिति के अध्यवसान स्थानों का ऊहापोह किया गया है। साधारणतः स्थितिबंधाध्यवसान स्थानों का स्वरूप-निर्देश हम पहले कर आये हैं। समयसार के आस्रव अधिकार में बन्ध के हेतुओं का निर्देश करते हुए वे जीव परिणाम और पुद्गल परिणाम के भेद से दो प्रकार के बतलाकर लिखा है कि जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप पुद्गल के परिणाम हैं वे कर्म बन्ध के हेतु हैं तथा जो राग, द्वेष और मोहरूप जीव के परिणाम हैं वे पुद्गल के परिणामरूप आस्रव के हेतु होने से कर्म बन्ध के हेतु कहे गये हैं। यह सामान्य विवेचन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस कर्म के जितने उदयविकल्प हैं उनसे युक्त होकर ही ये द्रव्य और भावरूप आस्रव के भेद कर्मबन्ध के हेतु होते हैं, इसलिए प्रकृत में स्थितिबन्धाध्यवसान स्थानों में प्रत्येक कर्म के उदयविकल्पों को ग्रहण किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
जीवसमुदाहार में ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्धक जीवों को सातबन्धक और असातबन्धक ऐसे दो भागों में विभक्त कर और उनके आश्रय से विशद विवेचन कर इस अधिकार को समाप्त किया गया है । इस सम्बन्ध में स्पष्ट विवेचन हम पहले ही कर आये हैं। इस समग्र कथन को हृदयंगम करने के लिए वेदनाखण्ड पुस्तक ११ की द्वितीय चूलिका का सांगोपांग अध्ययन करना आवश्यक है ।
१०. उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध अर्थाधिकार पूर्व में मूल प्रकृतियों की अपेक्षा स्थितिबन्ध का प्रकृत में प्रयोजनीय जैसा स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा स्पष्टीकरण जानना चाहिए। जो मूल प्रकृतियों के स्थितिबन्ध का विवेचन करते हुए अनुयोगद्वार स्वीकार किये गये है वे ही यहां स्वीकार कर उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध की प्ररूपणा की गई है।
अनुभागबन्ध की अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मों की सब प्रकृतियाँ दो भागों में विभक्त हैं । पुण्य प्रकृतियां और पाप प्रकृतियां । पुण्य प्रकृतियों को प्रशस्त प्रकृतियाँ और पाप प्रकृतियों को अप्रशस्त प्रकृतियाँ भी कहते हैं। किन्तु स्थितिबन्ध की अपेक्षा तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु को छोडकर शेष ११७
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