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________________ १२८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ प्रकृत में भी इसी पद्धति से बन्ध तत्त्व को प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदशेबन्ध इन चार प्रमुख अधिकारों में विभक्त कर उनमें से प्रत्येक का ओघ और आदेश से अनेक अनुयोग द्वारों का आलम्बन लेकर विचार किया गया है। इससे बन्ध तत्त्व सम्बन्धी समग्र मीमांसा को निबद्ध करने में सुगमता आ गई है। समग्र षट्खण्डागम इसी शैली में निबद्ध किया गया है अतः महाबन्ध को निबद्ध करने में भी यही शैली अपनाई गई है। ऐसा करते हुए मूल में कहीं भी किसी पारिभाषिक शब्द की व्याख्या नहीं की गई है। मात्र प्रकरणानुसार उसका उपयोग किया गया है। किन्तु एक पारिभाषिक शब्द एक स्थल पर जिस अर्थ से प्रयुक्त हुआ है, सर्वत्र उसे उसी अर्थ में प्रयुक्त किया गया है । ४ कर्म शब्द के अर्थ की व्याख्या कर्म शब्द का अर्थ कार्य है। प्रत्येक द्रव्य, उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाव वाला होने से अपने ध्रुवस्वभाव का त्याग किये बिना प्रत्येक समय में पूर्व पर्याय का व्यय होकर जो पर्याय रूप से नया उत्पाद होता है वह उस द्रव्य का कर्म कहलाता है । यह व्यवस्था अन्य द्रव्यों के समान जीव और पुद्गल द्रव्य में भी घटित होती है। किन्तु यहाँ जीव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में से क्रम से यथा सम्भव पांच, चार, तीन, दो या एक को निमित्त कर कार्मणवर्गणाओं का जो ज्ञानावरणादिरूप परिणमन होता है उसे 'कर्म' कहा गया है। ज्ञानावरणादि रूप से स्वयं कार्मणवर्गणाऐं परिणमीं, इसलिए नोआगम भाव की अपेक्षा तो वह कर्मरूप परिणाम स्वयं पुद्गल का है । किन्तु उन कार्मणवर्गणाओं के परिणमन में जीव के मिथ्यात्व आदि भाव निमित्त होते हैं, इसलिए निमित्त होने की अपेक्षा उसे उपचार से जीव का भी कर्म कहा जाता है। इस प्रकार इन ज्ञानावरणादि कर्मों को जीव का कहना यह नोआगम द्रव्यनिक्षेप का विषय है, नोआगम भाव निक्षेप का विषय नहीं, इसलिए आगम में इसे द्रव्य कर्मरूप से स्वीकार किया गया है। काल-प्रत्यासत्ति या बाह्यव्याप्ति वश विवक्षित दो द्रव्यों में एकता स्थापित कर जब एक द्रव्य के कार्य को दूसरे द्रव्य का कहा जाता है तभी नोगमनय की अपेक्षा ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल परिणाम को जीव का कार्य कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं; यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस प्रकार प्रकृत में उपयोगी कुछ तथ्यों का निर्देश करने के बाद अब महाबन्ध परमागम में निबद्ध विषय पर सांगोपांग विचार करते हैं। ५. महाबन्ध परमागम में निबद्ध विषय यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों विषयोंको ध्यान में रखकर महाबन्ध में बन्ध तत्त्वको निबद्ध किया गया है। यह प्रत्येक द्रव्यगत स्वभाव है कि प्रत्येक द्रव्यके कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधि की समग्रता होती है । यतः ज्ञान-दर्शन स्वभाववाला जीव स्वतंत्र द्रव्य है और प्रत्येक जीव द्रव्य पृथक् पृथक् सत्ता सम्पन्न होने से सब जीव अनन्त हैं तथा पर्याय दृष्टि से वे संसारी और मुक्त ऐसे दो भागोंमें विभक्त हैं । जो चतुर्गति के परिभ्रमण से छुटकारा पा गये हैं उन्हें मुक्त कहते हैं। किन्तु जो चतुर्गति परिभ्रमण से मुक्त नहीं हुए हैं उन्हें संसारी कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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