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कसायपाहुडसुत्त अर्थात् जयधवलसिद्धान्त
संख्या
गुणधर-सम्मत
यतिवृषभ-सम्मत
वीरसेन-सम्मत
६ वदेक ७ उपयोग ८ चतुःस्थान ९ व्यञ्जन १० दर्शन मोहोपशामना ११ दर्शन मोहक्षपणा १२ संयमासंयमलब्धि १३ चारित्रलब्धि १४ चारित्र मोहोपशामना १५ चारित्र मोहक्षपणा
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उदीरणा उपयोग चतुःस्थान व्यञ्जन दर्शन मोहोपशामना दर्शन मोहक्षपणा देश विरति | चारित्र मोहोपशामना चारित्र मोहक्षपणा अद्धापरिमाण निर्देश
बन्धक वेदक उपयोग चतुःस्थान व्यञ्जन सम्यक्त्व देश विरति संयमलब्धि चारित्र मोहोपशामना चारित्र मोहक्षपणा
यदि पाठक गहराई से देखेंगे, तो यह अधिकार-भेद एक तो अद्धापरिमाणनिर्देश को लेकर है। वीरसेनाचार्य का कहना है कि यतः यह अधिकार सभी अधिकारों से संबद्ध है, अतः उसे अलग अधिकार मानने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा मतभेद प्रकृति विभक्ति आदि को स्वतंत्र अधिकार न मानने की अपेक्षा से है। तीसरा मतभेद वेदक वेदक अधिकार जो स्वतंत्र या उदय उदीरणा के रूप में विभक्त कर मानने का है। यद्यपि उस भेदों के कारण क्रम संख्या में कुछ ऊंचानीचापन दृष्टिगोचर होता है, तथापि वस्तुतः तत्त्वविवरण की अपेक्षा कोई भेद नहीं है ।
अब यहां पर उपर्युक्त अधिकारों का विषय-परिचय कराने के पूर्व जैन दर्शन के मूलभूत जीव और कर्म तत्त्व को जान लेना आवश्यक है। यह तो सभी आस्तिक मतवाले मानते हैं की यह जीव अनादि काल से संसार में भटक रहा है और जन्म-मरण के चक्कर लगाते हुए नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्टों को भोग रहा है। परन्तु प्रश्न यह है कि जीव के इस संसार परिभ्रमण का कारण क्या है ? सभी आस्तिक वादियों ने इस प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास किया है। कोई संसार परिभ्रणम का कारण अदृष्ट को मानता है, तो कोई अपूर्व दैव, वासना, योग्यता आदि को बदलाता है। कोई इसका कारण पुरातन कर्मों को कहता है, तो कोई यह सब ईश्वर-कृत मानकर उक्त प्रश्न का समाधान करता है। पर तत्त्व-चिन्तकों ने काफी ऊहापोह के बाद यह स्थिर किया कि जब ईश्वर जगत् का कर्ता ही सिद्ध नहीं होता, तब उसे संसार-परिभ्रमण का कारण भी नहीं माना जा सकता, और न उसे सुखदुःख का दाता ही मान सकते हैं। तब पुनः यह प्रश्न उत्पन्न होता है, कि यह अदृष्ट, दैव, कर्म आदि क्या वस्तु हैं ? संक्षेप में यहां पर उनका कुछ विचार किया जाता है।
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