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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ का कथन आराधना में किया जाता है शेष दीक्षा, शिक्षा और गणपोषण काल का कथन आचार में किया जाता है। यदि आदि के तीन कालों में मरण उपस्थित हो जाये तो उस समय इस प्रकार के (नीचे लिखे हुए) परिणाम करना चाहिये ।
शेष अधिकार यथास्थान व्यवस्थित है। अन्तिम पर्याप्तिअधिकार एक तरह से करणानुयोग की जीवविषयक चर्चा से सम्बद्ध है और उसका मुनि के आचार से सम्बन्ध नहीं है। किन्तु मुनि को जीव स्थान आदि का परिज्ञान होना आवश्यक है उसके बिना वह जीव रक्षा कैसे कर सकता है। इसी से टीकाकार ने उस अधिकार को 'सर्व सिद्धान्त करण चरण समुच्चय स्वरूप' कहा है। इन अधिकारों में क्रमशः ३६ + ७१ + १४ +७६ + २२२ + ८२ + १९३ + ७६ + १२५ + १२४ + २६+२०६ = १२५१ गाथा संख्या माणिकचन्द ग्रन्थमाला में मुद्रित प्रति के अनुसार है। उसमें कुछ अधिकारों में क्रमिक संख्या है और कुछ में प्रत्येक अधिकार की गाथा संख्या पृथक् पृथक् है।
विक्रम की बारहवीं शताब्दी में वीरनन्दि नाम के आचार्य ने संस्कृत में आचारसार नामक ग्रन्थ रचा था । इसमें भी बारह अधिकार हैं किन्तु उनका क्रम मूलाचार से भिन्न है तथा अधिकारों की संख्या समान होते हुए भी नाम भेद है। यथा मूलगुण, सामाचार, दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, शुद्धयष्टक, षडावश्यक, ध्यान, पर्याप्ति, शीलगुण । इस तरह इसमें मूलाचारोक्त छै अधिकार हैं
और पंचाचार को पांच अधिकारों में फैलाकार तथा शुद्धयष्टक और ध्यान का वर्णन पृथक अधिकारों में करके बारह संख्या पूर्ण की गई है। इस संख्या तथा विषय वर्णन की दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि मूलाचार की रचना के आधार पर ही यह रचा गया है ।
इससे पूर्व में चामुण्ड राय ने भी चारित्रसार नामक ग्रन्थ रचा था। उसमें भी अनगारधर्म का वर्णन है किन्तु वह तत्त्वार्थसूत्र के नवम अध्याय में प्रतिपादित दशधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषजय, चारित्र आदि को दृष्टि में रखकर तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकार पूज्यपाद और अकलंक देव के अनुसरण पर रचा गया है। यद्यपि उसमें प्रसंगवश मूलाचार के पिण्ड शुद्धि नामक अधिकार की कुछ गाथाएं उद्धृत की हैं और उससे कुछ अन्य आवश्यक प्रसंग, षडावश्यक, अनगारभावना आदि लिये हैं।
पं. आशाधर ने अपना अनगारधर्मामृत उपलब्ध साहित्य को आधार बनाकर रचा है उसमें मूलाचार भी है। वह एक अध्ययनशील विद्वान थे और उपलब्ध सामग्री का पूर्ण उपयोग करने में कुशल थे। उनके अन. धर्मा. में नौ अध्याय है, क्रम वीरसेन के आचार सार जैसा है। धर्म स्वरूप निरूपण, सम्यक्त्वाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना, पिण्ड शुद्धि, मार्ग महोद्योग (दसधर्म आदि का विवेचन) तप आराधना, आवश्यक नियुक्ति, और नित्यनैमित्तिक क्रियाभिधान ।
उक्त मुनिधर्म विषयक साहित्य मूलाचार के पश्चात् रचा गया है और उसकी रचना में मूलाचार का यथायोग्य उपयोग ग्रन्थकारों ने किया है।
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