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प्रवचनसार
एकांग्रता तथा यौगपद्य नहीं है वह बाह्यतः श्रमण होकर भी पदार्थों में मोहरागद्वेष के कारण विविध कर्म बंध ही करता है, तथा जो परद्रव्यों में रागादि नहीं करता और आत्मा में लीन होता है तो कर्मक्षय के साथ अतीन्द्रिय सुख को पाता है।
वास्तव में श्रमण शुद्धोपयोगी होते हैं तथापि गौण रूप से शुभोपयोगी भी होते हैं। शुद्धोपयोगी श्रमण आस्रवरहित होते हैं और शुभोपयोगी के पुण्य का आस्रव होने से वे उनकी कक्षा में नहीं आ सकते, फिर भी सामायिक से च्युत न होने के कारण श्रमण तो होते ही हैं। जिसे देव शास्त्रों में भक्ति, साधर्मी श्रमणों के प्रति वात्सल्य पाया जाय वह शुभोपयोगी श्रमण है, उन्हें वंदना, नमस्कार, अभ्युत्थान विनय तथा वैयावृत्य जैसा निन्दित नहीं वैसे ही उन्हें धर्मोपदेश, शिष्यों का पोषण, भगवान् के पूजा का उपदेश आदि सरागचर्या होती है, षट्काय जीव-हिंसा रहित, चतुःसंधों का उपकार उनको होता है, शुद्धोपयोगी के नहीं। उन्हें वैयावृत्यादि संयम से अविरोधी सराग क्रिया भी नियम से षट्काय जीव के विराधना के बिना ही होनी चाहिए । जहाँ जीवहिंसा पाई जाती वहां पर तो श्रामण्य का उपचार भी संभव नहीं। अल्पलेप होने पर भी श्रमण जिनमार्गी चतःसंघ पर शुद्धात्म लाभक से निरपेक्ष तथा उपकार भी करता है किन्तु अन्य किसी भी लौकिक प्रयोजन से तथा मिथ्या मार्गी के प्रति वह समर्थनीय नहीं है। श्रमणों के वैयावत्य के प्रयोजन बिना लौकिक जनों से भाषण तथा संगति भी आगम में निषिद्ध ही है। श्रमणाभासों के साथ सर्व व्यवहार वर्जनीय है। बाह्यतः तपसंयमधारी होने पर भी आत्मा तथा अन्य पदार्थों की जिसे आगमानुसार भेद-प्रतीति नहीं है वह श्रमणाभास कहलाता है। श्रमणों में भी यथायोग्य, यथागुण आगमानुकूल व्यवहार होना चाहिए, निर्दोष साधुचर्या के लिए सत्संग विधेय है तथा लौकिक साधु आदिकों का असत्संग परिवर्जनीय है।
इस तरह ७० गाथाओं में मुनिचर्या का स्वानुभव से ओतप्रोत साक्षात् प्रत्ययकारी निरूपण करने के बाद अन्त्य पाँच गाथाओं द्वारा जिनागम का रहस्य अलौकिक रूप से प्रगट किया गया है-वे पांच [२७१ से २७६ तक] गाथाएँ इस प्रवचनसार महाग्रंथराज की पंचरत्न कही जाती है।
(१) जो द्रव्यलिंगधारी होकर भी आत्मप्रधान पदार्थों की अयथार्थ प्रतीति करते हुए दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करनेवाले उन श्रमणों को साक्षात् 'संसारतत्त्व' जानना चाहिए । (२) यथार्थतः शास्त्र और अर्थ को समझकर समताधारी होते हुए जो अन्यथा प्रवृत्ति को टालते है ऐसे संसार में अत्यल्प काल रहनेवाले पूर्णरूप श्रमण ही साक्षात् 'मोक्ष तत्त्व' है। (३) वस्तुतत्त्व को यथार्थ जाननेवाला, अन्तरंग तथा बहिरंग परिग्रह को छोडता हुआ, विषयलोभ से अतीत शुद्धोपयोगी श्रमण ही 'मोक्ष का कारण तत्त्व' है। (४) उन शुद्धोपयोगी के ही श्रामण्य, दर्शन, ज्ञान तथा निर्वाण होता है उनके सर्व मनोरथ सम्पन्न होने से वे ही हृदय से अभिनन्दनीय हैं । (५) इसलिए जो जिन प्रवचन को यथार्थ जानते है ऐसे शिष्य ही यथा स्थान सविकल्प-निर्विकल्प भूमिका में वर्तते हुए प्रवचन के सारभूत भगवान् आत्मा को पाते है।
___इस प्रकार प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द देव ने आत्मा की प्रधानतापूर्वक वस्तुस्वरूप का हृदयग्राही प्रतीतिकारक विवेचन किया है । तत्त्व की भूमिका सरल शैली में सुबोध रीति से समझना यह तो
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