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प्रवचनसार
वाले अन्य जीव को भी श्रामण्य का स्वीकार करना चाहिए। उसका यथा अनुभूत उपदेश आत्मा की मुख्यता से इस अध्याय में आचार्य द्वारा हुआ है।
श्रामण्यार्थी प्रथम तो पुत्र, पत्नि आदि परिवार को समझाकर उनसे विदाई लेकर उनसे मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का अंगीकार करता है । (२) कुलरूप वय से विशिष्ट गुणसमृद्ध आचार्य को प्रणत होकर उनके द्वारा अनुगृहीत होता हुआ जितेन्द्रिय और यथाजात दिगंबर मुद्रा धारण करता है। (३) हिंसा तथा शरीर संस्कार से रहित, केशलोंचप्रधान दिगंबर भेषरूप श्रामण्य का जो बाह्य चिन्ह है उसे और मूर्छा तथा आरंभ से रहित, परनिरपेक्ष योग उपयोग की शुद्धियुक्त जो अंतरंग चिन्ह है उनका (दीक्षा गुरुद्वारा दिये गये उन लिंगों को) ग्रहण क्रिया से समादर करता है। (४) अरहन्त देव तथा दीक्षा गुरु का नमस्कार द्वारा सम्मान करता है। क्योंकि उन्हीं के द्वारा मूलोत्तर गुण का सर्वस्व दिया गया था ।
साम्य ही स्वरूप होने से श्रमण को सामायिक का स्वीकार अनिवार्य है। अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होना ही सामायिक है। सामायिक का स्वीकार करने पर भी निर्विकल्प भूमिका से च्युत होकर पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पांच इन्द्रियों का जय, छह आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, खडे खडे भोजन और एकभुक्ति इन अट्ठाईस मूलगुणरूप भेद भूमिका में आता है । निर्विकल्प शुद्धोपयोग भूमिका से छूटकर सविकल्प भूमिका में आना छेद है। दीक्षागुरु ही (भेद में स्थापित करनेवाला) निर्यापक होता है, तथा वे ही या अन्य कोई भी साधु संयम का छेद होनेपर उस ही से स्थापन करनेवाला होने से निर्यापक होता है। संयम का छेद बहिरंग और अंतरंगभेद से दो तरह का है, मात्र शरीर संबंधी बहिरंग छेद का आलोचना से तथा अंतरंग छेद का आलोचना और प्रायश्चितपूर्वक संधान होता है। सूक्ष्म परद्रव्यों का भी रागादिपूर्वक संबंध छेद का आश्रय होने से त्याज्य है तथा स्वद्रव्य में संबंध ही श्रामण्य की पूर्णता का कारण होने से कर्तव्य है। आहार, अनशन, वसतिका, विहार, देह की उपाधि, अन्य श्रमण तथा आत्मकथा की विसंवादिनी विकथाएँ इनसे प्रतिबंध (संबंध) अशुद्धोपयोग है और वह अंतरंग छेद का कारण होने से त्याज्य है। प्राण-व्यपरोपरूप बहिरंगछेद अंतरंगछेद का आश्रय होने से छेद माना गया है; किन्तु अयत्नाचार या अशुद्धोपयोग के सद्भाव में ही वह बंध करनेवाला है, उसके अभाव में नहीं। वास्तव में अयत्नाचार और अशुद्धोपयोग ही हिंसा है । चाहे प्राण व्यपरोप हो या नहीं। इस तरह केवल प्राण व्यपरोप में नियम से मुनीपणा का छेद नहीं है। किन्तु उपधि-परिग्रह बंध का कारण होने से तथा अशुद्धोपयोग का और अयत्नाचार का सहचारी होने से नियम से श्रामण्य का छेद ही है। __कारण मुनि को परिग्रह का निषेध कहा उसमें अंतरंग च्छेदका ही प्रतिषेध है । छिलके के सद्भाव में चावलों में रक्तिमारूप अशुद्धता होती ही है वैसे बाह्य परिग्रह के सद्भाव में अशुद्धोपयोग होता ही है; अतः शुद्धोपयोगजन्य मोक्षलाभ भी सुतरां अशक्य है। किन्तु उत्सर्ग मार्ग में अशक्त साधुओं को श्रामण्य और संयम की रक्षाके लिए अनिन्दनीय, असंयमी लोगों द्वारा अप्रार्थनीय तथैव मूर्खाका अनुत्पादक ऐसा दिगंबर जिनलिंग, पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र, गुरूपदेश आदि उपाधि अपवाद मार्ग में निषिद्ध नहीं है। मुनिचर्या की
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