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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
कालप्रवाह में अज्ञानभावों की बलवत्ता और निमित्तकर्तृत्व के संस्कारों की अधिकता से इस सूक्ष्म आर्हत तत्त्वज्ञान में भी अन्यथापन अधिकतर पनप गया है, प्रभावित हुआ है । फलतः धर्मतत्त्वज्ञान के स्वरूप - सुंदर स्वरूप को सांप्रदायिकता का अशोभनीय रूप प्राप्त हुआ । श्वेतांबर संप्रदाय क्या और दिगंबरों में भी परतंत्रता के भूलभरे विषात् विकल्पों का क्या इसके उदाहरण हो सकते है ? परमार्थ स्वरूप यथार्थ मोक्षमार्ग की सुरक्षा करने का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य यह आचार्य शिरोमणि युगपुरुष कुंदकुंद भगवान की जैनत्व के लिए सातिशय सचेतन देन है । परम सूक्ष्म आत्मतत्त्व विषयक तत्त्वज्ञानकी सागर जैसी गहराई, आकाश जैसी व्यापकता सूर्यप्रकाश जैसी सुस्पष्टता ये ग्रंथ की अपनी विशेषता है । आत्मा के विभक्त एकत्व का यहां साधकों को साक्षात्कार होता है इसीलिए यह चिंतामणि रत्न है । यहां विसंवाद का अंश नहीं न्याय सिद्धांतों से या सिद्धांत ग्रंथांतर्गत न्यायों से इस ग्रंथ में प्रणीत तत्त्वनिरूपण में बाधा नहीं आ पायी । आत्मवस्तु का शुद्ध स्वरूप जैनी वस्तुव्यवस्था के मूलाधार पर ही आधारित है ।
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संपूर्ण शास्त्र जिसकी ओर अंगुली निर्देश कर पाते है, चारों अनुयोग पद्धति का जो लक्ष्य बना रहा, शास्त्र विवेचन का जो अंतिम उद्देश रहा उसी शुद्ध आत्मतत्त्व का यहां पर मर्मस्पर्शी हृदयंगम सर्वतोभद्र कल्याणप्रद लोकोत्तम साक्षात् आविष्कार हुआ है । द्रव्यदृष्टि का, शुद्ध नयन का अवलंबन लिया गया वह स्वतंत्र है अतः अध्यात्म ग्रंथों का यह ग्रंथ आदि मंगलस्वरूप शुद्ध मूलस्रोत है । अनंतरवर्ती ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में इसकी चिन्मुद्रांकित अमिट मुद्रा बराबर अंकित करने में अपने को धन्य माना है और इस ग्रंथ की प्राणभूत शुद्ध नयात्मक द्रव्यदृष्टि मोक्ष के लिए और यथार्थ समाहित वृत्ति प्राप्त करने के लिए कामधेनू है । ऐसे परमोपकारी आचार्य कुंदकुंद देव को त्रिकाल नमोऽस्तु हो ।
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