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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ होता। जिस प्रकार पर्याय दृष्टि किचड़ में जल और मल को पृथक अनुभवन नहीं कर पाता । यदि स्वभावदृष्टि का अवलंबन करता है तो तत्काल शुद्ध जलका अनुभवन होता है उसही प्रकार अशुद्ध संसारपर्याय में स्वभावदृष्टि का अवलंब कर कर्मोदयरूप विकार और आत्माका त्रिकाली ध्रुव ज्ञायक स्वभाव इन दोनोंको प्रज्ञाके द्वारा भिन्न जानकर प्रज्ञा के द्वारा विकारों का त्याग और स्वभाव का स्वीकार होना चाहिए। ज्ञानी विकारों पर एवं हेय जानता है उनसे तन्मय नहीं होता, आत्मा से उन्हें भिन्न स्वीकारता है।
यही विकारों का त्याग है। इन प्रकार शुद्ध आत्मा के आश्रय से ज्ञान-दर्शन चारित्र की प्रवृत्ति होना ही स्वभाव का स्वीकार है। इसमें भी अपनी प्रज्ञा ही एकमात्र साधन होता है। शुद्ध चैतन्य आत्मा में ही कारक संबंध को स्वीकार करके (पर में कारक संबंध न मानकर ) उस कारक विकल्प से भी स्वयं अतीत होना, शुद्ध आत्मा में उपयोगकी समाधि तन्मयता यही मोक्षमार्ग है। तात्पर्य, सूक्ष्म नयके द्वारा सर्व प्रथम रागादि विकल्प पश्चात् कारकों के विकल्पकों को भी दूर करके एक शुद्ध आत्माकी अविचल अनुभति करना यही मोक्षतत्व है।
सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार इस प्रकार नवतत्त्वों में एक ज्ञायक भावस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व अनुस्यूत है। वह कर्तृत्व और भोक्तत्व के विकल्प से अतीत है । आत्मा स्वभाव से रागद्वेषों का कर्ता या भोक्ता नहीं है । अज्ञान अवस्था में रागादि विकारभाव होते है इसलिए अज्ञानी-जीव ही रागादिकोंका भोक्ता है ज्ञानी अवस्था में वह अकर्ता और अभोक्ता है । यह अमृतोपम अध्यात्म मंत्र है। इसे भूलना और विकारों का कर्ता जड़ कर्म को मानना उनमें अपनाहि अपराध नहीं मानना यह अध्यात्म का विपर्यास है। कर्मोदय का निमित्त होनेपर उनमें लीन होने से अपने ही अपराध के कारण विकार होते है।
'यदिह भवति रागद्वेष-दोष प्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र ।
स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो, भवति विदितमसां यात्वबाधोऽस्मिबोधः ॥ आशय यह है कि “आत्मा में जो रागद्वेषादि दोषों की उत्पत्ति होती है उसमें पर द्रव्योंका कोई अपराध नहीं है । यहाँ तो अज्ञान ही स्वयं अपराधी के रूप में सामने आता है। यह ठीक तरह से जानने में आवे और अज्ञानका पूरा अभाव हो जावे । मैं तो ज्ञानमात्र हूं।"
परद्रव्यों का संयोग होने मात्र से जो रागद्वषों के उत्पत्ति का उत्तरदायित्व पदार्थोपर थोपते है स्वयं इस जीव ने परका संग किया इस अपनी भूलको स्वीकार नहीं करते वे अज्ञानी मोह महानदी से पार नहीं पा सकते । यह स्पष्ट है कि कोई बाह्य वस्तु या पांच इन्द्रियों के विषय स्वयं रागद्वेष के जनक नहीं होते है। वे 'मुझे चखो?' 'मुझे देखो ?' इत्यादि रूप से किसी जीव को प्रेरित भी नहीं करते और आत्मा भी अपने स्थान को छोडकर विषयों को ग्रहण करने दौडकर नहीं जाता । आत्मा तो ज्ञायकदर्शक मात्र है वह भी अपने स्वभाव से न कि ज्ञेयभूत-दृश्यभूत पर पदार्थों के कारण । जिस प्रकार चांदनी स्वयं स्वभाव से ही वस्तु मात्र को प्रकाशित करती है उसी प्रकार ज्ञान सहज स्वभाव से ही ज्ञायकरूप है और पदार्थ अपने
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