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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ वह अपने चैतन्यमय ज्ञानभाव मात्र का कर्ता होता है। उनही से तन्मय का अनुभवन होता है । जिसको वह 'पर' जाने उन भावों के साथ तन्मय कैसे होगा और यहि तन्मय नहीं होता है तो उनका कर्ता भी किस प्रकार सिद्ध होगा ? इस प्रकार आस्रवभाव और आत्मभावों में जब भेदज्ञान होता है उसी क्षण आत्मा की रागादि संसारभावों के साथ कर्तत्वबुद्धि नष्ट होती है और तन्निमित्तक होनेवाला कर्मबंध भी नहीं होता है। भाव यह है कि निश्चय से आत्मा रागादिको का कर्ता नहीं है पर्यायार्थिक नयसे अज्ञानी अज्ञानभावों का और ज्ञानी अपने ज्ञानभावों का कर्ता है। आत्मा स्वभावतः ज्ञानी होने के कारण शुद्ध नय से वह अपने चैतन्य परिणामों का कर्ता है।
___आगमग्रंथों में यत्रतत्र आत्मा को पौद्गलिक क्रोधादिकर्मों का और उदयापन्न पुद्गलकर्मों को जीवके क्रोधादिभावों का कर्ता कहा है वह केवल उपचार कथन है। परस्पर निमित्तनैमित्तिकता का लोगों को बोध कराने मात्र के लिए वह अनादिरूढ व्यवहार दरसाया है। जैसे कुंभकार को घट का कर्ता कहना । वास्तव में मिट्टी ही कुंभरूप से परिणत होती है इसलिए मिट्टी कुंभ की कर्ता कहना यह निश्चय है, उसही प्रकार से जीव अपने आत्म परिणामों का कर्ता स्वयं सिद्ध होता है ।
आत्मा में कर्मबद्ध-स्पष्ट है यह व्यवहार पक्ष है और कर्म आत्मा में बद्ध-स्पष्ट नहीं है यह निश्चयनय पक्ष है, दोनों नय विकल्प रूप ही है। निश्चयनय का विकल्प अर्थात् सविकल्प निश्चयनय यह स्वाभाविक निर्विकल्प अनुभति की अपेक्षा से व्यवहार स्वरूपही है । इस लिए दोनों नय पक्षों को (व्यवहार पक्ष और निश्चयनय के विकल्प का पक्ष ) आचार्यों ने विनाविकल्प हेय ही कहा है। सर्वज्ञ भगवान की तरह जानने योग्य ज्ञेय मात्र है । अनुभति में आश्रयणीय नहीं। विकल्पात्मक नय पक्ष का स्वीकार यह निर्विकल्प अनुभूतिस्वरूप इष्ट की सिद्धि करने वाला नहीं है । वह भी रागरूप होने से अनुभूति में बाधक है । निश्चयनय के विषयभूत शुद्ध आत्मा के साथ उपयोग से तन्मय होकर निर्विकल्प होना यही 'आत्मख्याति' है। वही निश्चय नय के विषय का स्वीकार है। निश्चयनय का ग्रहण कहा जाता है। वही शुद्ध नय का ग्रहण है । प्रयोजनभूत भी वही है । दोनों नय पक्षों का ज्ञाता मात्र बनकर निश्चयनय विषयरूप से साक्षात् परिणमन करना यही मोक्षमार्ग है, यही सम्यग्दर्शन है।
संक्षेप यह है की रागद्वेषसंबंधी कर्ताकर्मबुद्धि यह कोरा अज्ञान है, कर्मबंध का निमित्त है, संसार का निमित्त है और कर्ता-कर्म-बुद्धि का त्याग ज्ञानभाव है, कर्मक्षय का निमित्त है अतएव उपादेय है ।
पुण्यपापाधिकार आगम ग्रंथों में गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म रूप से जो निरूपण है वहां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप विशुद्धि के साथ सहचर रूप से विद्यमान मन्द-कषाय रूप जो शुभोपयोग होता है उसे व्यवहार से धर्म कहा है, कषाय के अभावों के साथ होने मात्र के कारण धर्म का उन में उपचार चरणानुयोग ग्रंथों में किया गया है। (वीतरागता-यथासंभव कषाय का अभाव और शुभोपयोग एकत्र पाये जाने में विरोध नहीं) इसलिए पुण्य धर्म का एक अंग कहा जाता है उस में व्यवहार दृष्टि की बलवत्ता है ।
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