________________
२८
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
विकाररूप से यद्यपि अन्य आगमग्रंथों में जीव के कहे गये है फिर भी वह संपूर्ण कथन व्यवहार कथन है । प्रयोजन वश उसका यथास्थान कथन क्रम प्राप्त होता है । क्यों कि विकारों में रचे हुए जीवों को विकारों के साथही साथ धाराप्रवाही रूप से विद्यमान पारिणामिक भावरूप ज्ञायक भाव का परिचय व्यवहारक अवलंब से उनके द्वारा ही होता है, तत्त्व दृष्टी से आत्मा तो ज्ञायक मात्र ही है । समयसार में 'ज्ञान' यह अनन्त गुणों का प्रतिनिधी रूप से कहा जाता है । व्यवहार ग्रंथ में गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदिकों को जीवों के कहा है; उन्हें ही अध्यात्म शास्त्रों में पुद्गलमय कहा है और उसके लिए कारण शुद्धात्मानुभूति से वे भिन्न है ऐसा कहा है । २. जिस प्रकार ज्ञानादि गुणों के साथ जीव का नित्य तादात्म्य संबंध है उस प्रकार विकार भावों के साथ नहीं है । ३. नाम कर्मादिकों के क्षणिक उदयादि के साथ उनका अविनाभाव होता है न कि अनादि अनंत जीवस्वभाव के साथ । इन्हीं हेतुओं से उन्हें वे जीव के क्षणिक परिणाम होते हुए भी ' पर ' एवं हेय रूप से स्वीकार किया गया। शुद्ध नय की दृष्टि में एक शुद्ध चैतन्य भाव मात्र जीव रूप से स्वीकृत होने से वे सर्वभाव अनुभूती से परे है । इस तरह जीव अजीव तत्त्व की प्रतीति होने से शुद्ध आत्मलाभ होता है ।
कर्ता कर्म-अधिकार
अज्ञानी और ज्ञानी के कर्ताकर्म बुद्धि में भी विशेष अन्तर होता ही है । अज्ञानी स्वयं को कर्म का, कर्मसापेक्ष परिणामों का क्रोधादिकों का, सुख-दुःखादि भावों का और शरिरादि नोकर्म का भी कर्ता मानता है यह मान्यता ही संसार परिभ्रमण का मूल है। ज्ञान से ही अज्ञानमूलक कर्तृकर्म बुद्धि का विनाश संभव है । जिसे आत्मा और रागद्वेषमोहादि भाव इन में भेदविज्ञान हुआ है वे ही वास्तव में ज्ञानी हैं । समयसार गाथा ७५ में कहा ही है
कम्मस्स हि परिणामं णोकम्मस्य तहेय परिणामं । ण करेई एथ नादा जो जाणादि सो हवदि णाणी ॥ ७५ ॥
रागादि परिणाम और शरिरादि नोकर्म परिणामो को जीव करता नहीं, इस प्रकार जो जानना है वह ज्ञानी है । वास्तव में आत्मा ज्ञानस्वभावी होता हुआ अपने चैतन्य परिणामों का ज्ञान परिणामों का ही कर्ता है, क्योंकि वस्तु का स्वभाव ऐसा ही है ।
प्रत्येक वस्तु द्रव्य-गुण पर्यायात्मक है । और द्रव्य अपने गुणपर्यायों में व्याप्त होकर ही रहता है । द्रव्यहि प्रतिसमय स्वयं अपने अपने पर्यायरूप से परिणत होता है, इसलिये द्रव्यार्थिक नय से प्रत्येक द्रव्य अपने अपने पर्याय का कर्ता है, पर्यायार्थिक नयसे पूर्वपर्यायविशिष्ट द्रव्य उपादान कारण होता है जबकि वर्तमान पर्यायविशिष्ट योग्यता को प्राप्त द्रव्य 'कर्ता' कहा जाता है और वही परिणाम उसका 'कर्म' होता है । जीव स्वयं चैतन्यमय वस्तु है उसके संपूर्ण परिणाम चैतन्यमय होते है । निश्चय से जीव अपने चैतन्य परिणामों का कर्ता होता है और वे परिणाम जीव के कर्म होते है ।
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org