________________
१०
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
कारण जिनशास्त्रोंका अभ्यास है, इसलिये उसे प्रयोजनके अर्थ जिनशास्त्रोंका भी अभ्यास स्वयमेव होता है; उसका निरूपण करते हैं । तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ रागादि दूर करनेका उपदेश देते हैं; वहाँ एकदेश व सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव होनेपर उनके निमित्तसे जो एकदेश व सर्वदेश पापक्रिया होती थी वह छूटती है, तथा मंदरागसे श्रावक - मुनिके व्रतोंकी प्रवृत्ति होती है और मंदरागका भी अभाव होनेपर शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति होती है, उसका निरूपण करते हैं । तथा यथार्थ श्रद्धान सहिस सम्यग्दृष्टियोंके जैसे कोई यथार्थ आखड़ी होती है या भक्ति होती है या पूजा-प्रभावनादि कार्य होते हैं या ध्यानादिक होते हैं उनका उपदेश देते हैं । जिनमतमें जैसा सच्चा परम्परामार्ग है वैसा उपदेश देते हैं । इस तरह दो प्रकार से चरणानुयोग में उपदेश जानना ।
तथा चरणानुयोगमें तीव्रकषायोंका कार्य छुड़ाकर मंदकषायरूप कार्य करनेका उपदेश देते हैं । यद्यपि कषाय करना बुरा ही है, तथापि सर्व कषाय न छूटते जानकर जितने कषाय घढें उतना ही भला होगा - ऐसा प्रयोजन वहाँ जानना । जैसे- जिन जीवोंके आरम्भादि करनेकी व मन्दिरादि बनवानेकी, व विषय सेवनकी व क्रोधादि करने की इच्छा सर्वथा दूर होती न जाने, उन्हें पूजा - प्रभावनादिक करनेका व चैत्यालयादि बनवानेका व जिनदेवादिकके आगे शोभादिक, नृत्य -गानादिक करनेका व धर्मात्मा पुरुषोंकी सहाय आदि करनेका उपदेश देते हैं; क्योंकि इनमें परम्परा कषायका पोषण नहीं होता ।
तथा चरणानुयोगमें कषायों जीवोंको कषाय उत्पन्न करके भी पापको छुड़ाते हैं और धर्ममें लगाते हैं । जैसे— पापका फल नरकादिकके दुःख दिखाकर उनको भय कषाय उत्पन्न करके पापकार्य छुड़वाते हैं, तथा पुण्यके फल स्वर्गादिकके सुख दिखाकर उन्हें लोभ कषाय उत्पन्न करके धर्मकार्यो में लगाते हैं ।
तथा चरणानुयोगमें छद्मस्थकी बुद्धिगोचर स्थूलपनेकी अपेक्षासे लोकप्रवृत्तिकी मुख्यता सहित उपदेश देते हैं; परन्तु केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनेकी अपेक्षा नहीं देते; क्योंकि उसका आचरण नहीं हो सकता । यहाँ आचरण करानेका प्रयोजन है । जैसे—अणुव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग कहा है और उसके स्त्री-सेवनादि क्रियाओं में त्रसहिंसा होती है । यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रस कहे हैं, परन्तु इसके स मारनेका अभिप्राय नहीं है और लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे नहीं करता है; इसलिये उस अपेक्षा उसके त्रसहिंसाका त्याग है । तथा व्रती जीव त्याग व आचरण करता है सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसार व लोकप्रवृत्तिके अनुसार त्याग करता है । जैसे—– किसीने त्रसहिंसाका त्याग किया, वहाँ चरणानुयोगमें व लोकमें जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है, केवलज्ञानादि द्वारा जो त्रस देखे जाते हैं उनकी हिंसाका त्याग बनता ही नहीं ।
तथा चरणानुयोगमें व्यवहार - लोक प्रवृत्तिकी अपेक्षा ही नामादिक कहते हैं । जिस प्रकार सम्यक्त्वीको पात्र कहा तथा मिथ्यात्वीको अपात्र कहा; सो यहाँ जिसके जिनदेवादिकका श्रद्धान पाया जाये वह तो सम्यक्त्वी, जिसके उनका श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यात्वी जानना । क्योंकि दान देना चरणानुयोगमें कहा है, इसलिये चरणानुयोगके ही सम्यक्त्व - मिथ्यात्व ग्रहण करना । करणानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्वमिथ्यात्व ग्रहण करनेसे वही जीव ग्यारहवें गुणस्थानमें था और वही अन्तर्मुहूर्तमें पहिले गुणस्थान में आये,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org