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शास्त्र का अर्थ करने की पद्धति
व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को तथा उसके भावों को एवं कारण-कार्यादि को किसी को किसी में मिला कर निरूपण करता है, इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है, अतः इसका त्याग करना चाहिये। और निश्चयनय उसी को यथावत् निरूपण करता है, तथा किसी को किसी में नहीं मिलाता, इसलिये ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, अतः उसका श्रद्धान करना चाहिये।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो, जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, उसका क्या कारण ?
उत्तर-जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनयन की मुख्यता सहित व्याख्यान है, उसे तो “ सत्यार्थ इसी प्रकार है " ऐसा समझना चाहिये, तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लेकर कथन किया गया है, उसे " ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादि की अपेक्षा से यह उपचार किया है " ऐसा जानना चाहिये और इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। किन्तु दोनों नयों के व्याख्यान (कथन-विवेचन) को समान सत्यार्थ जानकर " इस प्रकार भी है और इस प्रकार भी है" इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तने से तो दोनों नयों का ग्रहण करना कहा नहीं है।
प्रश्न-यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है तो जिनमार्ग में उसका उपदेश क्यों दिया है ? एक मात्र निश्चयनय का ही निरूपण करना चाहिये था ।
उत्तर-ऐसा ही तर्क श्री समयसारमें किया है, वहाँ यह उत्तर दिया है कि-जैसे किसी अनार्य-म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है इसलिये व्यवहार का उपदेश है। और फिर इसी सूत्र की व्याख्या में ऐसा कहा है कि इस प्रकार निश्चय को अंगीकार कराने के लिये व्यवहार के द्वारा उपदेश देते हैं, किन्तु व्यवहारनय है वह अंगीकार करने योग्य नहीं है।
-श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक में, पं. टोडरमलजी
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