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स्मृनि-मंजूषा पूज्य आचार्य श्री की आचार्य-परंपरा
संहितासूरी श्री. व. सूरजमलजी
हम दोनों ऐसे बचे विक्रम सं. २०१० में परम पूज्य आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का ससंघ वर्षायोग निवाई में हुआ था। तब आपका चातुर्मास दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कुन्थलगिरी में हुआ था। उस समय में मैं और निवाई निवासी श्री रतनलालजी गिंदोडी आचार्य श्री के दर्शनार्थ कुन्थलगिरी को निकले । जालना स्टेशन पर मुसाफिरखाने में हम दोनों सो रहे थे । स्टेशन पर अंधेरा छाया हुआ था। मैं कुछ अर्ध नींद में था । इतने में आवाज आई, मैं देख ही रहा था कि फुकार करता हुआ सांप मेरी छाती पर चढ बैठा । हवाश भी भूल गया, कुछ भी सूझ नहीं पड रही थी। थोडी देर बाद कुछ होश आया तब मन ही मन भक्तामरकाव्य
और 'श्री पार्श्वनाथाय नमः ।' जपता रहा । कम से कम १५ पंधरा मिनट तक सीने पर चढा रहा । मैं तो हात पैर भी इधर-उधर हिला न नका। उस समय आत्मा भय से इतनी काँप रही थी कि शरीर से प्राण निकलना ही शेष रह गया था। जब छाती पर से सांप उतर गया सो ही मेरे साथी सेठ रतनलालजी की गर्दन पर चढ गया और फौरन ही गर्दन पार कर गया।
आप गाढ निद्रा में थे सो कुछ भी पता नहीं चला। मैंने सेठ साहब से दिनभर बात नहीं की और कहने की इच्छा भी नहीं थी। किन्तु अचानक ही मुँह से निकल गया कि रात को तुम्हारी गर्दन पर बड़ा भारी सर्प चढ गया था। बस बेहोश होकर वमन और दस्त हो गया तथा ज्वरमान १०५॥ डिग्री हो गया। उन्हें संभालना कठीन सा हो गया। ऐसे करते हुए तीन दिन हो गए। सुस्त रहते हुए आचार्य श्री ने देखकर कहा कि ब्रम्हचारीजी तुम दो दिन से सुस्त क्यों हो। मैंने कहा, “महाराजजी आपके दर्शन करते हुए किसी की भी याद नहीं आती है। हां? मेरे साथी की इस तरह हालत खराब हो गई है। इसी चिन्ता में मैं डूबा जा रहा हूँ।" महाराज ने सारे समाचार सुनकर आश्चर्य प्रगट करते हुए कहा, “अच्छा, उस रतनलाल को हमारे पास ले आओ।" जैसे तैसे उठाकर रतनलालजी को महाराज श्री के पास लाया । महाराज श्री ने पूछा 'अरे भाई तुम्हें क्या हो गया ?' तब रतनलालजी ने कहा 'महाराजजी मेरी गर्दन पर सर्प चढ गया था ।' 'काटा तो नहीं ?' 'हाँ महाराज, नहीं काटा'' तो सर्प चढने से इतने घबरा गये ? अच्छा तुम घबराओ नहीं, अच्छे हो जाओगे।' ज्यों ही आचार्य श्री ने रतनलालजी के सिर पर पीछी रखी सो तत्क्षण ही रतनलालजी का बुखार उतरकर गया और वह खडे होकर चलने लगे। उलटी, दस्त सब बन्द हो गए। यह अलौकिक चमत्कार आचार्य श्री की ही तपस्या में देखा । रतनलालजी बच गए।
ऐसे निकृष्ट पंचम काल में निःसंशय आचार्यश्री महान् चारित्र को धारण करनेवाले थे। आपकी प्रभावशाली कडी तपस्या तथा सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण ने जनता को चतुर्थ काल सा दिखा दिया ।
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