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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ था जेष्ठ, पुष्ट, अति हृष्ठ, सुदेवगौंडा रोती, सती, विलखती, गतहर्षिणी थी छोटा बडा चतुर बालक सातगौंडा जो सातगौड-जननी, गजगामिनी थी दोनो मनो सुकुल के यश-कोष ही थे बोली निजीय सुत को नलिनी मुखीयों या प्रेम के परम-पावन सौध ही थे ॥११॥ औ पुत्र सम्मुख तथा रख दी व्यथा यों ॥१७॥
होता विवाह हत ! शैशव काल में ही पाती प्रिया अनुजकी द्रतमृत्यु यों ही बीतीं कई तदुपरान्त अहर्निशांये जागी तदा नव-विवाह-सुयोजनायें ॥१२॥
माजी ! अहो ! भव-भयानक-काननी में कोई नहीं शरण है इस मेदिनी में सद्धर्म छोड सबही दुख-दायिनी है वाणी जिनेन्द्र कथिता सुखदायिनी है ॥१८॥
मा ! मात्र एक ललना चिरसे बची है ऐसी न नीरज-मुखी अब लौं मिली है हो चाहती मम-विवाह मुझे बता दो जल्दी मुझे अहह ! हाय ! शिवांगनादो ॥१३
माधुर्य-पूर्ण-समयोचित-भारती को मा को कही सजल-लोचन-वाहिनी को जो भीमगौड-सुतने वचनावली को मा के तजी श्रुति-निकेतन में श्रुती को ॥१९॥
ऐसा कहा द्रुत सुनो वच भी स्वमाके विद्रोह, मोह, निजदेह-विमोह छोडा जो भीमगौंड-सुतने सुमृगाक्षिणी को। आगे सुमोक्ष-पथ से पर नेह जोडा जो भीमगोंड पति के अनुगामिनी थी देवेन्द्र कीर्ति-यति से अति भक्तिसाथ यों कुंदिता, मुकुलिता, दुखधारिणी थी॥१४ । दीक्षा लिया, वरलिया, वर-मुक्तिपाथ ॥२०॥
काटें मुझे दिख रहें घर में यहीं जी चाहूं नहीं घर निवास अतः कभी जी आधार और वर सार सुधर्म ही है माजी ! अतः मुनि बनूँ यह ही सही है ॥१५॥
गंभीर-पूर्ण सुविशाल-शरीर-धारी आधार-हीन जन के द्रुत आतहारी औ वंश-राष्ट्र पुर-देश-सुमाननीय जो थे सुशान्ति गुरुजी नितदर्शनीय ॥२१॥
तू जायगा यदि अरण्य उषा-सवेरे उत्फुल्ल-लोल-कल-लोचन-कंज मेरे बेटा ! अरे ! लहलहा कल ना रहेंगे होंगे न उल्लसित औ न कभी खिलेंगे॥१६॥
विद्वेष का न इनमें कुछ भी निशानी सत्प्रेम के-सदन थे पर थे न मानी अत्यन्त जो लसित थी इनमेंऽनुकम्पा आशा तथा मुकुलिता वरकोपचम्पा ॥२२॥
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