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: ४१ : उदय : धर्म-दिवाकर का
| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ |
जी, गाढमलजी लोढ़ा आदि ने समस्त श्रीसंघ की ओर से अजमेर चातुर्मास की विनती की। उनकी प्रार्थना स्वीकार करके आपने किशनगढ़ की ओर विहार कर दिया ।
किशनगढ़ में महावीर जयन्ती किशनगढ़ में आपके पदार्पण के साथ ही हर्ष छा गया। कुछ दिन बाद ही चैत्र सुदी १३ आने वाली थी। भगवान महावीर के जन्मोत्सव की धूमधाम से तैयारी होने लगी। राज्य की ओर से छाया आदि का प्रबन्ध हुआ। महावीर जयन्ती का उत्सव उत्साहपूर्वक मनाया गया। व्याख्यान सुनने को हजारों मनुष्य उपस्थित हुए। हिंसादिक कृत्य बन्द रहे । गरीबों को वस्त्र आदि का दान दिया गया । जैन लोगों ने आयंबिल व्रत किये ।
किशनगढ़ से विहार करके टोंक होते हुए आप हरमाडे पधारे। वहाँ तेलियों ने अमुक दिन धानी बन्द रखने की और जैन भाइयों ने अपनी आय में से पच्चीस टका सैकड़ा धार्मिक कार्यों में व्यय करने की प्रतिज्ञा की।
वहाँ से रूपनगढ़ आए । रूपनगढ़ में प्राचीन शास्त्रों का भण्डार था । श्रावकों के अत्यधिक आग्रह पर आपने कुछ शास्त्र अपने साथ लिये और अजमेर की ओर विहार कर दिया।
अजमेर में आप लाखन कोठरी में रायबहादुर सेठ उम्मेदमलजी के मकान में चातुर्मास हेतु ठहरे । इस समय आपके गुरुदेव आशुकवि हीरालालजी महाराज का चातुर्मास किशनगढ़ में था। लेकिन वहां प्लेग फैल गया। इसीलिए श्रावकों के अत्यधिक आग्रह पर वे पंडित नन्दलालजी महाराज के साथ अजमेर पधारे। इस मुनि संगम से अजमेरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ।
आपके गुरुदेव पं० श्री हीरालालजी महाराज ने बहुत से भजन बनाये और साधु-साध्वियों में वितरित कर दिये।
एक दिन अस्वस्थ रहने के बाद आश्विन शुक्ला २ को पं० मुनिश्री हीरालालजी महाराज देवलोकवासी हो गए।
प्लेग अजमेर में भी फैल गया । अतः मुनि संघ को नगर के बाहर लोढ़ाजी की हवेली में जाना पड़ा । शेष चातुर्मास वहीं पूरा हुआ।
तेईसवाँ चातुर्मास (सं० १९७५) : ब्यावर अजमेर से विचरण करते हुए आप ताल पधारे। वहां के ठाकुर साहब उम्मेदसिंहजी ने अष्टमी और चतुर्दशी को बिलकुल शिकार न करने की प्रतिज्ञा ली। उनके बन्धुओं और पुत्रों ने भी अनेक प्रकार के त्याग लिए। वहां से आप लसाणी पहुंचे तो वहाँ के ठाकुर सहाब श्री खुमाणसिंहजी प्रतिदिन प्रवचन सुनने लगे और उन्होंने पक्षियों की हिंसा का त्याग कर दिया। साथ ही कितने ही अन्य मांसाहारी व्यक्तियों ने मांस न खाने का नियम लिया।
लसाणी से विहार करके आप देवगढ़ पधारे । वहाँ के रावतजी, विजयसिंहजी उदयपुरनरेश के सोलह उमरावों में से एक थे । जैन मुनियों के प्रति उनके हृदय में घोर अरुचि थी। एक बार कुछ पंडितों को एक जैन मुनि के साथ वितण्डावाद करने के लिए भी उन्होंने भेजा । एक दिन जब उन मुनि का प्रवचन हो रहा था उस समय वे घोड़े पर बैठकर निकले। मण्डप बँधा हुआ देखकर बोले-'इसे हटवा दो। हम इसके नीचे से नहीं निकलेंगे।' श्रावक क्या कर सकते थे? लाचार होकर पर्दा खोल देना पड़ा।
यह उनकी अरुचि की पराकाष्ठा थी।
लेकिन एक दिन वह भी आया जब वे जैन दिवाकरजी महाराज का सार्वजनिक प्रवचन Jain Education International
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