________________
| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : ३६ :
समाप्त होते-होते तो सैकड़ों श्रोता एकत्र हो गये। सभी एकाग्रचित्त होकर सुन रहे थे। प्रवचन पूर्ण हुआ लेकिन लोगों की प्यास और बढ़ गई। अमृत-पान से कौन अघाता है। लोगों ने आग्रह किया। महाराजश्री ने दो प्रवचन और दिये ।
दो से दो हजार का श्रोता समूह एकत्र होना आपश्री के अपूर्व प्रवचन प्रभाव का द्योतक है।
वहाँ से विहार करके भरतपुर होते हुए आप आगरा पधारे । इस समय आगरा में महावीर जयन्ती उत्सव धूमधाम से मनाया गया । बेलनगंज (आगरा) में हुए प्रवचन में धौलपुर निवासी श्री कन्नोमलजी सेशन जज उपस्थित थे। उन्होंने तथा अनेक लोगों ने धौलपुर पधारने की प्रार्थना की।
आगरा से महाराजश्री धौलपुर पधारे। वहाँ मुरैना निवासी स्याद्वादवारिधि प्रसिद्ध विद्वान पं. गोपालदासजी बरैया का आग्रहपूर्ण निमन्त्रण मिला। पंडित जी दिगम्बर जैन थे और गोम्मटसार आदि ग्रन्थों के प्रकाण्ड विद्वान थे।
वहां से आप लश्कर (ग्वालियर) पधारे। श्वेताम्बर समाज के वहां लगभग ४० घर थे लेकिन सराफा बाजार में हुए आपके प्रवचनों में ७००-८०० से अधिक उपस्थिति थी। सभी सम्प्रदायों के लोग आपका उपदेश सुनने आते थे। लश्कर के श्रीसंघ ने आपसे चातुर्मास का आग्रह किया। आपने कहा-दो साधु आगरा में रह गए हैं । उनसे सम्मति लिए बिना निर्णय नहीं किया जा सकता । महाराजश्री पुनः आगरा की ओर पधारे और वह चातुर्मास आगरा में ही सम्पन्न किया। खटीक का हिंसा-त्याग
आगरा वर्षावास पूर्ण करने के बाद आप मालव भूमि की ओर बढ़ रहे थे। कोटा से कुछ आगे विहार कर रहे थे । मार्ग में एक व्यक्ति किसी छायादार विशाल वृक्ष के नीचे सोया हुआ था। उसके पास ही दो बकरे बँधे थे। उस व्यक्ति की मुखमुद्रा कठोर थी। जाति से वह खटीक था। महाराजश्री ने अनुमान लगाया-यह व्यक्ति बधिक है । वधिकों के मुख पर ही ऐसी कठोरता होती है। उसकी निद्रा भंग हुई। उसने आँखें खोलीं । महाराजश्री ने प्रतिबोध देने के लिए प्रश्न किया
"भाई | तू यह पाप क्यों करता है ? जीविकोपार्जन के लिए ही न ! फिर भी तू सभी प्रकार से दीन-हीन दिखाई दे रहा है। तन पर साबित कपड़े भी नहीं हैं । दुःख और दैन्य की मूर्ति ही बना हआ है।"
“महाराज ! आपके सामने झूठ नहीं बोलूंगा । मैं सभी प्रकार से दुःखी हूँ। सुख क्या है, मैंने इस जीवन में जाना ही नहीं।"
"सुखी तुम हो भी कैसे सकते हो ? दूसरों को दुःख देने वाला, उनकी हत्या करने वाला खुद कैसे सुख पा सकता है। इस हिंसाकर्म को छोड़ो तो सुख की आशा करो-महाराजश्री ने कहा।
"कैसे छोडूं ? यह तो मेरा पैतृक व्यवसाय है ?"
"तो क्या पैतृक व्यवसाय छोड़ा नहीं जा सकता ? सवाई माधोपुर के खटीकों को जानते हो ? वहाँ के ३५ परिवारों ने यह बुरा धन्धा छोड़ दिया । क्या वे अब सुखी नहीं है ?"
__ "उनको तो में खूब जानता हूं। वे तो बहुत सुखी हैं।"
"तो उन्हीं का अनुकरण करो। तुम भी सुखी हो जाओगे।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org