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श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
हुआ यह सम्बन्ध ही सबसे ज्यादा दुर्लभ है। संसार असार है। इसमें कोई किसी का साथी नहीं, सहारा नहीं। सभी अपने कर्मों के वश आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी अमर नहीं है। पुत्र को छोड़ कर पिता चल बसता है और पत्नी को छोड़कर पति । एकमात्र धर्म ही आश्रय है । मेरी मानो तो धर्म का आश्रय लो। साध्वी बन जाओ। तुम्हारे लिये यही वस्कर है।"
३१ उदय धर्म - दिवाकर का
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सन्तों के सत्यपूत वचन बड़े प्रभावकारी होते हैं। मानकुंवर प्रभावित हुई । उसका विग्रह अनुग्रह में बदल गया। उसके हृदय में वैराग्य भावना जाग्रत हो गई। उसने कहा
"आपकी बात सत्य है । यह संसार असार है। अब मैं साध्वी बनकर इस मानव जन्म को सफल करना चाहती हूँ। मुझे दीक्षा दिलवाने की कृपा कीजिए।"
जावरा संघ के माध्यम से श्री गुलाबचन्द जी डफरिया ने अपनी ओर से धन व्यय करके मानकुंवर का दीक्षा महोत्सव किया। यह वि० सं० १६६७ की विजयादशमी का दिन था। मानकुवर अब साध्वी मानकुबेर बन गई ।
एक साधक की वाणी में कितना आत्मबल और हृदय को बदलने की क्षमता होती है यह इस घटना से स्पष्ट हो गया कि आपको पुनः गृहस्थ बनाने की जिद पर अड़ी हुई मानकुँवर स्वयं ही संसार त्याग कर साध्वी बन गई ।
महासती मानकुँबर जी महाराज छह वर्ष तक विविध प्रकार की तपाराधना करती रही । अपना अन्तिम समय निकट जान उसने संधारा ले लिया और धावण शुक्ला १० वि सं० १९७३ को स्वर्गवासी हुई।
जैन दिवाकरजी म० ने यह चातुर्मास जावरा में किया।
सोलहवां चातुर्मास (१९६०) बड़ी सादड़ी जावरा से विहार करके आपश्री करजू पधारे । करजू से अनेक ग्रामों में विहार करते हुए आप बड़ी सादड़ी पधारे और वहीं चातुर्मास किया। भाद्रपद शुक्ला ५को उदयपुर निवासी कृष्णलालजी ब्राह्मण ने दीक्षा ग्रहण की।
सत्रहवाँ चातुर्मास (सं० १९६६ ) : रतलाम
बड़ी सादड़ी से विहार करके आप अनेक गाँव-नगरों में होते हुए रतलाम पधारे। रतलाम चातुर्मास की विनती स्वीकार कर धार, इन्दौर, देवास, उज्जैन आदि नगरों में सार्वजनिक व्याख्यान एवं त्याग प्रत्याख्यान धर्मध्यान कराते हुए पुनः रतलाम पधारे। १६६२ का चातुर्मास रतलाम में हुआ | आपकी वाणी का लाभ हजारों लोगों ने लिया बहुत उपकार हुआ। सं० १९६६ मार्गशीर्ष वदि ४ को रतलाम में ताल निवासी चंपालालजी ने धूमधाम से दीक्षा ग्रहण की रतलाम निवासी पूनमचन्द जी बोथरा के सुपुत्र श्री प्यारचन्दजी ने भी साधु-जीवन स्वीकार करने की इच्छा प्रकट की, लेकिन उसका सुयोग अभी नहीं आया था । गुरुदेव के साथ रतलाम से आप उदयपुर तक गये । वहाँ से आज्ञा लेने के लिए धाना सुता (रतलाम) आये । पारिवारिक एवं सम्बन्धी जनों ने विघ्न उपस्थित कर दिया। दादी और भ्राता ने आज्ञा देने से इन्कार कर दिया। श्री प्यारचन्दजी की इच्छा पुनः गुरुदेव के चरणों में पहुँचने की थी, परन्तु मार्ग व्यय नहीं था । रतलाम वाले श्री धूलचन्दजी अग्रवाल की माता हीराबाई ने आर्थिक सहयोग दिया। आप पुनः उदयपुर पहुंचे। वहां से गुरुदेव के साथ चित्तोड़ आये। फिर घर जाकर आज्ञा लेकर आये एवं सं० १९६९ की फाल्गुन शुक्ला ५ को समारोहपूर्वक श्री संघ ने दीक्षा दिलवाई।
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