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: ५७१ : श्री जैन दिवाकरजी महाराज की गुरु-परम्पारा श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
पंडित मुनिराज प्रसिद्ध हुए। ये विद्वान् पंडितगण जैन समाज की गौरव-गाथा का विस्तार चारों दिशाओं में कर रहे थे।
पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज के नौ शिष्यों में से पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज सुप्रसिद्ध हैं। आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज
आपका जन्म टोंक के पास टोडा (रायसी) जयपुर स्टेट में हुआ था। आप एक सुसम्पन्न ओसवाल चपलोत गौत्रीय थे ।
एक समय पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज का बंदी में शुभागमन हुआ। गृह कार्यवश श्री हुक्मीचन्दजी का भी बूंदी में आना हो गया। पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज का वैराग्योत्पादक उपदेश श्रवण कर सं० १८७६ में मृगसर के शुक्ल पक्ष में आपने प्रबल वैराग्य से दीक्षा धारण की। तत्पश्चात् एक महान् धर्मवीर के रूप में पूज्यश्री हुक्मीचन्दजी महाराज रत्नत्रय की आराधना में जुट गए।
आपकी व्याख्या शैली शब्दाडम्बर से रहित सरल तथा वैराग्य से ओत-प्रोत भव्य जीवों के हृदय को सीधे छूने वाली थी। आपके हस्ताक्षर भी अति सुन्दर थे । आज भी आपके द्वारा लिखित शास्त्र निम्बाहेड़ा के ग्रन्थालय में सुरक्षित हैं। साथ ही १६ सूत्रों की हस्तलिखित प्रतियाँ अन्यत्र विद्यमान हैं।
आपने निरन्तर २१ वर्षों तक बेले-बेले (छठ) तप किया था। आप केवल एक ही चद्दर का सदा उपयोग करते थे चाहे भयंकर शीत हो या ग्रीष्मऋतु । आप प्रतिदिन दो सौ "नमोत्थुणं" का स्मरण जीवन-पर्यन्त करते रहे। आपने मिष्ठान्न तथा तली हई चीजों का जीवन-पर्यन्त के लिए त्याग कर दिया था, केवल १३ द्रव्य रखकर शेष सभी द्रव्यों का आजीवन के लिए त्याग किया था । आप नींद बहुत ही कम लेते थे। आपने अपने गुरुजी से धर्म-प्रचार हेतु आज्ञा प्राप्त कर हाड़ोती प्रान्त मेवाड़ मालवा आदि के अनेक गांवों में भ्रमण करते हुए धर्म-प्रचार किया।
आपके धर्म-प्रचार से श्रीसंघों में आशातीत धर्म-ध्यान एवं तपोन्नति हुई तथा पूज्यश्री के उच्चकोटि के आचार-विचार के प्रति जनगण सश्रद्धा नतमस्तक हो उठा । आपके स्पर्शमात्र से रामपुरा के एक कुष्टी का कुष्ठ रोग तिरोहित हो गया। इसी प्रकार एक दीक्षार्थिनी की हथकड़ियां भी आपके दर्शनों से टूट गईं। आपके तपोबल से नाथद्वारा के व्याख्यानस्थल पर नम से रुपयों की वर्षा हुई थी।
आपके गुरु पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज ने अपने व्याख्यान में कहा था कि हक्मीचन्दजी तो साक्षात् चौथे आरे के नमूने हैं । ये एक पवित्र आत्मा व उत्तम साधु तथा अद्भुत क्षमा के मंडार हैं।'
पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज ने साधुओं के नियमों-उपनियमों में शास्त्रानुसार बहुत सुधार किये। आपने एवं आपके साथी मुनि श्री शिवलालजी महाराज ने वि० सं० १६०७ में बीकानेर में ठाणा ४ से चातुर्मास किया । आपके प्रभाव से महान् धर्मोन्नति हुई । आपके उपदेश से ४ दीक्षार्थी तैयार हुए। दीक्षा के समय पांच नाई आए किन्तु दीक्षार्थी चार ही थे । अतः पाँचवां नाई निराश हुआ। उस समय एक भाई तत्काल तैयार होकर बोला, "ले भाई नाई, निराश मत हो, मैं दीक्षा लेने को तैयार हैं।" इस प्रकार पाँच दीक्षाएँ एक साथ एक ही दिन में हुई।
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