________________
: ५५६ : धर्मवीर लोकाशाह
|| श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ
शाह की बारी आई तो उन्होंने एक मोती को खरा और दूसरे को खोटा बताया। खोटे मोती की परख के लिए उसे एरन पर रख कर हथौड़े की चोट लगाई गई। चोट लगते ही उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। मोती की इस परीक्षा को देखकर सारे जौहरी आश्चर्यचकित हो गये। लोकाशाह की विलक्षण बुद्धि देखकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें अपना कोषाध्यक्ष बना लिया । कुछ इतिहासकारों का मत है कि उन्हें अपने मन्त्री पद पर नियुक्त किया था। इस पद पर वे दस वर्ष तक रहे। इन्हीं दिनों चम्पानेर के रावल ने मुहम्मदशाह पर आक्रमण कर दिया। शत्रु के प्रति शिथिल नीति अपनाने के कारण उसके पुत्र कुतुबशाह ने जहर देकर अपने पिता को मार डाला। बादशाह की इस कर हत्या से लोकाशाह के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा। अब वे राजकाज से पूर्णतया विरक्त से रहने लगे। कुतुबशाह ने उन्हें राज्य प्रबन्ध में पुनः लाने के अनेक प्रयत्न किये, किन्तु श्रीमान् लोकाशाह ने सब प्रलोभन अस्वीकार कर दिये।"११
श्री लोकाशाह प्रारम्भ से ही तत्त्वशोधक थे। उन्होंने एक लेखक मण्डल की स्थापना की और बहुत से लहिये (लिखने वाले) रख कर प्राचीन शास्त्रों और ग्रन्थों की नकलें करवाने लगे तथा अन्य धार्मिक कार्य में अपना जीवन व्यतीत करने लगे । एक समय ज्ञानसुन्दरजी नाम के एक यति इनके यहाँ गोचरी के लिए आये। उन्होंने लोकाशाह के सुन्दर अक्षर देखकर अपने पास के शास्त्रों की नकल कर देने के लिए कहा। लोकाशाह ने श्रुत सेवा का यह कार्य स्वीकार कर लिया।
मेवाड़ पट्टावली में लिखा है, "एक दिन द्रव्यलिगियों की स्थान चर्चा चली। भण्डार में शास्त्रों के पन्ने उद्दइयों ने खाये हैं । अतः लिखने की पूर्ण आवश्यकता है। श्री लोकाशाह के सुन्दर अक्षर आते थे। अत: यह भार आप ही के ऊपर डाला गया। सर्वप्रथम दशवकालिक सूत्र लिखा। उसमें अहिंसा का प्रतिपादन देखकर आपको इन साधुओं से घृणा होने लगी। परन्तु कहने का अवसर न देखकर कुछ भी न कहा । क्योंकि ये उलटे बनकर शास्त्र लिखाना बन्द कर देंगे । जबकि प्रथम शास्त्र में ही इस प्रकार ज्ञान रत्न है तो आगे बहुत होंगे। यो एक प्रति दिन में और एक प्रति रात्रि में लिखते रहे।
___ “एकदा आप तो राजभवन में थे और पीछे से एक साधु ने आपकी पत्नी से सूत्र मांगा। उसने कहा-दिन का दूं या रात्रि का। उसने दोनों ले लिये और गुरु से कहा कि अब सूत्र न लिखवाओ । लोकाशाह घर आये । पत्नी ने सर्व वृत्तांत कह दिया । आपने संतोष से कहा-जो शास्त्र हमारे पास हैं उनसे भी बहुत सुधार बनेगा। आप घर पर ही व्याख्यान द्वारा शास्त्र प्ररूपने लगे । वाणी में मीठापन था। साथ ही शास्त्र प्रमाण द्वारा साधु आचार श्रवण कर बहुत प्राणी शुद्ध दयाधर्म अंगीकार करने लगे।"3
विविध उद्धरणों को प्रस्तुत करते हुए श्री भंवरलाल नाहटा ने लिखा है, "पहले घर की अवस्था अच्छी हो सकती है, पर फिर आर्थिक कमजोरी आ जाने से उन्होंने अपनी आजीविका ग्रन्थों की नकल कर चलाना आरम्भ किया। उनके अक्षर सुन्दर थे। महात्माओं के पास सं० १५०८ के
११ हमारा इतिहास, पृष्ठ ६३-६४ १२ स्वर्ण जयन्ती ग्रन्थ, पृष्ठ ३८-३६ १३ पट्टावली प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ २८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org